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होता तो वह उसी समय ताड़ सकता था कि उसके लाख छिपाने पर भी उसके रोम रोम उसके मन की चुगली खा रहे थे।

अस्तु। उस दिन इस पार्टी में एक गोपीबल्लभ को छोड़- कर सब ही ले तीर्थोपवास किया था। दूसरे दिन प्रात:काल से श्राद्धारंम समझना चाहिए। श्राद्ध के लिये सामग्री ये लोग साथ ले ही आए थे। श्राद्ध करानेवाले गौड़बोले महा- शय छाया की भाँति जहाँ ये जाते थे वहाँ साथ थे ही, यदि पंडित जी ने उनको साथमा लिया होता तो वास्तव में यहाँ पर भी इनकी वही दुर्दशा होती जो इन्होंने प्रयाग में यात्रियों की देखी थी। वही लंठाधिराज ब्राह्मण, वही पचास चालीस आदमियों के जमघट में मिलकर एक तंत्र से ब्राह्मण, बनियो, नाई, जाटों को एक साथ श्राद्ध कराना और वही "तेरे बाप के, उसके बाप के, उसके दादा के" गगनभेदी उच्चारण के साथ साथ तालियों की फटकार। गया के गुरुजी महाराज ने भी इलको पढ़ा लिखा विद्वान, धनवान् और प्रतिभाशाली समझकर एक अच्छा ब्राह्मण साथ कर दिया था। गौड़- बोले के निरीक्षण में उसी ने श्राद्ध करवाने का काम किया। जहाँ जहाँ वह देवता भूलता गया वहाँ वहाँ गौड़बोले ने सँभाला। उन्होंने आप भी श्राद्ध किया और पंडित जी के कार्य में भी सहायता की। इस तरह ये लोग मूर्ख देवता के अड़गे से बच गए और उनके काम में किसी प्रकार का विघ्न भी न पड़ने पाया।