पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/४५

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के लिये तैसा ही है। हमारे विचार से तो साकार है और साकार होना अनेक युक्ति प्रमाणों से सिद्ध है, किंतु यदि निराकार भी हो तो जब तक उसे साकार बनाकर उनकी मूर्ति आँखों के सामने खड़ी न की जाय तब तक वह ध्यान में नहीं आ सकता, कदापि नहीं आ सकता। जो निराकार है, जिसके हाथ पैर ही नहीं, उसका ध्यान में आधे ही क्या? वह आज इस अक्षयवट के दर्शन होते ही (फिर प्रणाम करके) सतयुग का समा नेत्रों के सामने आ खड़ा हुआ। यह हमारे चर्म्मचक्षुओं से बटवृक्ष का ठुंठ ही क्यों न दिखलाई दे किंतु यह कह रहा है कि "यदि युगधर्म ने मेरे पत्र फलादि, शाखा प्रशाखादि नष्ट कर डाले हैं तो कुछ चिता नहीं! तुक डरो मत। मैं ही सनातनधर्म की मूर्ति हूँ। यदि तुम बराबर मेरी सेवा करके मेरा नाम मात्र भी रख सकोगे तो भगवान् कल्कि के अवतार लेने पर प्यारा सनातनधर्म जैसे अपनी पूर्व स्थिति को पहुँच जायगा वैसे ही मैं भी हरा भरा हो जाऊँगा।"

"हाँ! यथार्थ है, परंतु महाराज! (हाथ पकड़कर दिखाता हुआ) देखो तो सही प्राचीन ऋषि मुनियों की, देवताओं की सभा! सबके मन इस स्थान पर इकठ्ठे होकर मानों हिंदू धर्म के होनहार पर विचार कर रहे हैं। आज जिनकी मूर्तियाँ दर्शन दे रही हैं किसी दिन वे स्वयं इसी त्रिवेणी तीर पर इकट्टे होकर उपदेशामृत की, धर्मामृत्त की वर्षा करते थे। क्यों! इनके दर्शनों से वही भाव मन में पैदा होता