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नहीं होता था। प्रियानाथ को उसने ही पाला पोसा था, इसलिये वह इनको 'पिरिया लल्ला' कहती और यह उसको बूढ़ी मैया' कहकर पुकारा करते थे। यात्रा से बहुत पहले उसका देहांत होने से इन्होंने इसका सब क्रिया कर्म अपने हाथ से किया था और वह यदि जीवित होती तो अवश्य इनके साथ यात्रा किए बिना न रहती, क्योंकि जब तक वह जीती रही उसका एक बार गंगाजी में हड्डियाँ न डुबोने के लिये सदा ही लल्ला के ऊपर उलहना बना रहा, और यदि सच पूछो तो इस उलहने ही ने उसका शरीर छूट जाने पर पंडितजी से यात्रा करवाई। माता के प्रेत-योनि पाने का जो प्रसंग गत प्रकरणों में आया हैं वह इनकी असली माता के लिये नहीं था, क्योंकि इनकी असली माता का गया श्राद्ध इनके पिता बीस वर्ष पहले स्वयं कर आए थे, और जब इन दोनों भाइयों के इस डोकरी ने ही पाला पोसा तब ये लोग उसे माता से भी बढ़कर समझते थे।

पंडित कांतानाथ ने भाई साहब की अनुपस्थिति में घर पर पड़े रहकर केवल पड़े पड़े जँभुआइयाँ लेने में और सोने खाने ही में समय का खुन किया हो सो नहीं। इनके घर में रकम रखकर रूपया उधार देने का धंधा पीढ़ियों से होता चला आया था। संस्कृत पढ़ना और अत्मकल्याण के लिये पढ़ना किंतु उससे जीविका न करनी, कभी दान पुण्य न लेना, यह इनकी खानदानी धरोहर थी। इसके सिवाय सुरपुर में