पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/७१

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"नहीं, हम नेशनेलिटी कायम करते हैं। हम चाहते हैं कि ये सब पुराने कस्टम दूर होकर होल् इंडिया की एक ही लैंग्वेज हो जाय, एक ही ड्रेस हो जाय और एक ही डाएट!"

"और सो भी अँगरेजों की नकल! क्यों, यही आपका मतलब है ना? परंतु उनकी उदारता में, उनकी उद्योग- शीलता में, उनकी सहानुभूति में और उनके स्वदेशप्रेम में नहीं।"

'बस, बस! हम ज्यादह कन्वरसेशन नहीं चाहते, काइं- डली इस सबजेक्ट को यहीं ड्राप कर दीजिए।"

"अच्छा!" कहकर पंडितजी ने जिन साहब की ओर से मुँह मोड़ लिया वह खासे काले रंग के, काले ही कपड़े पहने, काले साहब थे। आँखों का चश्मा और गले का सफेद कालर यदि बीच बीच में न चमकता होता तो कसम खाने के लिये काले के सिवाय दूसरा रंग ही उनके पास न मिलता। इस तरह पंडितजी को एक साहब का परिचय तो मिल हो गया। शेष तीनों में एक हिंदू, दूसरे मुसलमान और तीसरे पारसी साहब थे। पंडितजी की तरह इन तीनों की भी अँगरेजी में योग्यता ऊँचे दर्जे की थी। एक कहीं का प्रोफेसर था, एक कहीं का वकील था और एक कहीं का व्यापारी। चारों ही अँगरेजी पढ़कर उसके सद्गुणों का अनुकरण करने और अपना धर्म, अपनी रीति-भाँति और अपनी भाषा, भेष तथा भाव न छोड़ने के पक्षपाती थे। बस चार के चारों ही काले साहब को देखकर, आपस में इशारे करते हुए एक दूसरे की