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वस्त्र होने ही से उनमें मेल हो गया हो सो नहीं। अब भी
वे लोग आपस में कटे मरते हैं।"
"खैर! मगर तब जबान एक कैसी? अँगरेजी तो हो नहीं सकती। बहुत जोर मारा जाय वे इसे यहाँ की मुल्की जबान बनाने के वास्ते कई सदियाँ चाहिएँ। बेशक उर्दू एक ऐसी जबान है जो कारआमद हो सकती है, क्योंकि अब तक भी यह मुल्क के एक गोशे से दूसरे गोशे तक बोली और समझी जाती है। मगर साहब, आप हा शंशकीरत के ऐसे ऐसे मुशकिल लफ्जों को ठूँस रहे हैं कि अच्छी तरह मैं समझने में भी मजबूर हूँ! आपकी जबान आम-फहम नहीं हो सकती और इस तरह की जबान कायम कर गोया आप लोग हमारे और अपने दर्मियान एक खाई खोद रहे हैं।"
"अभी नहीं साहब! कदापि नहीं! बेशक यह सवाल
बड़ा टेढ़ा है। यदि हम संस्कृत के शब्दों की सहायता लेते हैं
तो आप लोगों को उन्हें बोलने और सीखने में कष्ट होता है,
और फारसी शब्दों को काम में लाते हैं तो हमारी भाषा
बंगाली, गुजराती, मरहटे, मदरासी लोगों के लिये फ्रेंच या
जर्मन हो जाती है। दुनिया की सब ही अथवा भारतवर्ष की
सब भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और संस्कृत ही उन्हें जोड़
देनेवाली है। उन प्रांतों के आदमियों को हमारी तरह
संस्कृत के शब्द अधिक काम में लाने से भाषा का समझना
सीधा पड़ता है। मैंने केवल संस्कृत की सहायता से जैसे