पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/७८

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हाँ शोभा बढ़ाई सही परंतु यदि गंगा ही न हो तो ये घाट, ये भवन कि काम के? बिलकुल रद्दी! भूतावास! जिनके देखने से भी डर लगे। परंतु अहा! देखो! डफरिन पुल से अस्सी संभास तक भगवती ने इन किनारे के भवनों की साड़ी ओढ़कर कैसा अद्भुत स्वरूप धारणा किया है? ओढ़ना नहीं! यदि साड़ी ओड़ ली जाय तो फिर दर्शन ही क्यों होने लगे? ओढ़ो नहीं। वह साड़ी गंगा तट पर, तट तट पर फैली हुई मानों भगवती से प्रार्थना करती है कि कभी मुझे भी एक गोता लगाकर अपना जीवन सार्थक करने का सौभाग्य प्राप्त हो। एक शयन करनेवाली निद्रामग्न नखशिख सुंदरी रमणी के शरीर पर हवा के झोंके से उड़ उड़कर कहीं कहीं जैसे साड़ी गिर जाती है उसी तरह गंगा तीर के भग्नाविशेष गिर पड़ने पर भी कृत्यकृत्य हैं।

वरूणा और अस्सी संगम के बीच में धनुषाकार गंगा, भगवान् भूतभावन का पिनाक धनुष, तट के तीर्थों की प्रत्यंचा, "हर हर महादेव!" के अमोध वाण और विश्वनाथ, विश्व के संहार करनेवाले भगवान् भोलानाथ जैसा तीरंदाज जहाँ प्रत्यक्ष विद्यमान हैं वहाँ दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीनों ही तापों का गुजारा कहाँ! सिंह के एक ही गर्जन से जैसे मेषों का वरूथ भागता है वैसे पापों के झुंड के झुंड काशी के यात्रियों के शरीर को छोड़ छोड़कर हिरन के शावकों की नाई भागे जा रहे हैं।