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प्रयाग में चाहे भिखारियों ने, गँठकटों ने और लफंगों ने इनकी
नाक में दम ही क्यों न कर डाली थी किंतु काशी की दशा
उससे दो कदम आगे थी। वहाँ इन लोगों से कितना भी
कष्ट क्यों न रहा को परंतु त्रिवेणी-तट का विशाल मैदाल साँस
लेने के लिये कम नहीं था और यहाँ की सँकरी सँकरी गलियाँ
जिनमें सूर्य नारायण का दर्शन भी दुर्लभ था। वहाँ के
भिखारी मुड़चिरे तो यहाँ के गुंडे। इनके मारे जब बड़े बड़े
"तीसमारखाँ " की अकल हैरान है तब पंडितजी विचारे
किस गिनती में हैं और तिस पर भी तुर्रा यह कि एक रूपवती
अबला इनके साथ है। भारतवर्ष की महिलाओं के लिये
यह सच कहा जाता है कि "आटे का दिया है घर में
रहती हैं तो चूहे नोचते हैं और बाहर जाती हैं तो कौवे टाँचते
हैं।" बस ऐसी दशा में जब काशी से कुशलपूर्वक बिदा हों
तब ही समझना चाहिए कि यात्रा सफल हुई, क्योंकि जब से
उस साधु ने शाप का भय दिखाकर "समझ लेंगें" की
घुड़की दी है तब से प्रियंवदा थर थर कांपती हैं। बस ऐसे ही
कारणों से इन्होंने सबकी सलाह से पक्का मनसूबा कर लिया
है कि "मंदिरों और तीर्थों में जब जाना तब जहाँ तक बन
सके के अधिक भीड़ के समय को टालकर जाना, भिखारियों
को देकर कपड़े खिंचवाने के बदले जो कुछ (यथाशक्ति) देना
वह गुप्त रूप से पात्र ब्राह्मण को, योग्य संन्यासियों को और
अंधे अपाहिजों को तलाश करके देना। और न देने पर