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पहला अफ़ग़ान युद्ध


न चल सकी । हम ऊपर लिख चुके हैं कि सोमनाथ के मन्दिर के किवाड़ आगरे में रोक दिए गए।

पाठकों को आश्चर्य होगा कि जब कि अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करने वाली समस्त अंगरेज़ी सेना में से राजनैतिक छलकेवल एक अंगरेज़ ज़िन्दा वच कर हिन्दोस्तान लौट सका, यह प्राचीन किवाड़ अफ़ग़ानिस्तान से यहाँ तक किस प्रकार आ सके। निस्सन्देह इस सम्बन्ध में सब से अधिक चमत्कारिक बात यही है कि जो किवाड़ इतनी धूम धाम के जुलूस के साथ आगरे लाए गए, वह सोमनाथ के मन्दिर के किवाड़ थे ही नहीं। यह समस्त ढोंग और बनावटी किवाड़ों का जुलूस केबल एक राजनैतिक छल था। कम्पनी के शासकों की कूटनीति का इससे सुन्दर उदाहरण और क्या मिल सकता है?

इसके बाद प्रथम अफ़ग़ान युद्ध की केवल थोड़ी सी कहानी बाक़ी रह जाती है। युद्ध का ख़र्च दो वर्ष से अफ़ग़ान युद्ध का ख़ामियाज़ाकम्पनी सरकार के लिए असह्य हो रहा था। १५ सितम्बर सन् १८४१ को लॉर्ड एलेनब्रु ने मलका विक्टोरिया के नाम एक पत्र में लिखा कि अफ़ग़ान युद्ध का ख़र्च इस समय कम्पनी सरकार को साढ़े बारह लाख पाउण्ड (क़रीब सवा करोड़ रुपए) सालाना देना पड़ रहा है। इसके अतिरिक क़रीब साढ़े ग्यारह लाख पाउण्ड सालाना उस समय सिन्धु नदी के इस पार नई फ़ौजों पर ख़र्च करना पड़ता था। ब्रिटिश भारतीय सरकार के बजट में सन् १८३९-४० में २४ लाख