पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९३
वियोग-शृंगार

 

उदाहरण दूसरा—(मध्यम)
सवैया

गोकुल गाँव तें गौन गुपाल को, बाल कहूँ सुनि आई अलीपर।
व्याकुल ह्वै बिरहानल सो, तजि घूमि गिरी गुन गौरि गलीपर॥
हाइ पुफारत धाइ गये, न सम्हारत वे थिरु नाँहि थलीपर।
जानि न काहू की कानि करी, हरि आनि गिरे वृषभानललीपर।

शब्दार्थ—गौन—जाना, गमन। थिरु—स्थिर। थली—स्थान। कानि—लज्जा। वृषभानलली—राधा।

उदाहरण तीसरा—(दीर्घ)
सवैया

कालिय कालि महाविष व्याल, जहाँ जल ज्वाल जरै रजनीदिनु।
ऊरध के अधके उबरें नहिं, जाकी वयारि बरै तरु ज्यों तिनु॥
ता फनि की फन-फाँसिनु पै, फँदि जाइ फँसै उकसै न कहू छिनु।
हा वृजनाथ सनाथ करो, हम होती अनाथ पै नाथ तुम्हे बिनु॥

शब्दार्थ—रजनीदिनु—रात दिन। बयारि—हवा। बरै—जले। उकसै—निकल सके।

दोहा

जहाँ आस जिय जियन की, सो करुनातम जानु।
जामे निहचै मरन को, करुना ताहि बखानु॥
करुनातम सिंगार जहँ, रति और शोक निदानु।
केवल सोक जहाँ, तहाँ भिन्न करुन रस जानु॥