सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०२
भाव-विलास

 

ताहि डरै नहिं तू सजनी, उत आतुर वे कविदेव घने हैं।
मेरौ मनायो तू मानि लै मानिनि, मैन महीप के मान मने हैं॥

शब्दार्थ—जाहि–जिसके। जाके प्रताप–जिसके प्रभाव से। सजनी–सखी। आतुर–अधीर। मैन–कामदेव।

विदूषक
दोहा

अङ्ग भेष भाषानुकरि, करै अन्यथा भाइ।
ताहि विदूषक कहत जो, देइ हाँस के दाइ॥

शब्दार्थ—हाँस–हँसी।

भावार्थ—अनेक भाषाओं का जानकार तथा तरह तरह के वेष बनाने में चतुर, बात बात पर हँसा देनेवाला विदूषक कहलाता है।

उदाहरण
सवैया

ऊँक सो वो रहिहै अभई, ऊँ विलोकत भूमि पै धूमि गिरोंगी।
तीर सौ सीरौ समीर लगै, तें सरीर में पीर घनीये घिरोंगी॥
मेरो कह्यो किन मानती मानिन, आपही तें उतको उनिरोंगी।
भौन के भीतर हीं भ्रम भोरी लों, बौरी लों नैक मैं दौरी फिरोंगी॥

शब्दार्थ—अभई–अभी। तीर सौ–तीर के समान। सीरौ–ठंडा। समीर–हवा। पीर–पीड़ा। घनीये–अधिक। भौन–घर। बौरी लों–पागल की भाँति।