पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०४
भाव-विलास

 

हँसि हौंस भरे अनुकूल विलोकनि, लाल के लोल कपोलनि पै।
बलि हो बलिहारी हौं बार हजारक, बाल की कोमल बोलनि पै॥

शब्दार्थ—डीठि-दृष्टि। लचाइ कै लोचन–आँखे नीची कर के। हौस–उत्साह। लोल–सुन्दर। कपोलनि–गालो।

दोहा

मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा, स्वकिया त्रिविधि बखानु।
सिसुता मै जोबन मिलै, मुग्धा सो उर आनु॥
वयःसन्धि अरु नवबधू, नवजोबना बिचारु।
नवलअनङ्गा सलजरति, मुग्धा पाँच प्रकार॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा ये स्वकीया के तीन भेद हैं। इनमें (बाल्यावस्था बीतने पर) जिसके शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग में यौवन का आगमन दिखलायी दे अर्थात् अंकुरित यौवना नायिका मुग्धा कहलाती है। इस मुग्धा के भी पाँच भेद हैं। १—वयःसन्धि २—नववधू ३—नवयौवना ४—नवलअनङ्गा और सलज्ज रति।

१–वयः सन्धि
सवैया

औरनु के अंग भूषन देखि, सुहोंसनि भूषन वेष सकेलै।
मन्द अमन्द चलै चितवै, कविदेव हंसै बिलसै बपु बेलै॥
फून बिथोरि के बारनु छोरि कें, हारनु तोरि उतै गहि मेलै।
मूरि के भाव बिसूरि सखीनु कों, दूरितें दूरि के धूरि मैं खेले॥