पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१५

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रति-लक्षण

'देव' मुरझाय उरमाल उरझाय कह्यो,
दीजो सुरझाय बात पूछी छल छेम की।
भायक सुभाय भोरें स्याम के समीप आय,
गांठि छुटकाइ गांठि पारि गई प्रेम की॥

शब्दार्थ—सहेली—सखियाँ। केली—क्रीड़ा। बरबेली जैसी हेमकी—सोने की श्रेष्ठलता के समान। लखि—देखकर। लोचन—आँखें। लचाव—झुकाकर। रासि—समूह। गरमाल—गले की माला। दीजो सुरझाय—सुलझा दो। छुटकाइ—खोलकर। गांठि छुटकाइ—गांठि को छुड़ाकर। गांठि प्रेम की—प्रेम की गाँठि बांध गयी।

उदाहरण दूसरा—(प्रिय श्रवण से)
सवैया


गौने के चार चली दुलही, गुरु लोगन भूषन भेष बनाये।
सील सयान सखीन सिखायो, सबै सुख सासुरेहू के सुनाये॥
बोलिये बोल सदा हँसि कोमल, जे मन-भावन के मन भाये।
यों सुनि ओछे उरोजनि पै, अनुराग के अंकुर से उठि आये॥

शब्दार्थ—गौने—द्विरागमन। सील—शील, सम्मान करने का स्वभाव, लज्जा। सखीन—सखियों ने। सिखायो—सिखा दिया। सासुरे—ससुराल। मनभावन—पति। बोलिये—बोलना। मनभाये—मन को अच्छे लगनेवाले। ओछे—छोटे। उरोजनि—कुचद्वय। अनुराग—प्रेम।