उदाहरण पहला
सवैया
जादिन तें वृजनाथ भटू, इह गोकुल ते मथुराहि गए हैं।
छकि रही तब तें छबि सों छिन, छूटति न छतिया मैं छए हैं॥
वैसिय भांति निहारति हौं हरि, नाचत कालिन्दी कूल ठये हैं।
शत्रु सँहारि के छत्र धर्यो सिर, देखत द्वारिकानाथ भये हैं॥
शब्दार्थ—वैसिय—उसी तरह, उसी प्रकार।
उदाहरण दूसरा (गम्भीरोक्ति)
सवैया
सबही के मनों मृग वा गुरजे, दृग मीनन कौ गुन जाल लियें।
बसुधा सुख सिन्धु सुधारसु पूरन, जात चले वृज की गलियें॥
कबि देव कहे इहि भांति उठी, कहि काहू की कोई कहूँ अलियें।
तबलों सबही यह सोरु परौ, कि चलौ चलिये जू चलौ चलिये॥
शब्दार्थ—गलियें—गलियों में। सोरु—शोर, हल्ला।
३८–३९—संकीर्ण और आशिष
दोहा
अलङ्कार जामें बहुत, सो सङ्कीरन होइ।
चाह चित्त अभिलाख को, असिख बरनै सोइ॥
शब्दार्थ—अभिलाख—अभिलाषा।
भावार्थ—जिस पद्य में बहुत से अलंकार एक साथ वर्णित हों वह सकीर्ण ओर जिसमें चित्त की अभिलाषा का वर्णन हो वह आशिष अलंकार कहलाता है।