सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३५
आंतर संचारी-भाव

 

८—दीनता
दोहा

दुरगति बहु बिरहादि तै, उपजै दुःख अनन्त।
दीन बचन मुख ते कढ़े, कहैं दीनता सन्त॥

शब्दार्थ—दुरगति (दुर्गति)—बुरी दशा।

भावार्थ—वियोग के कारण अत्यन्त दुःख पाने पर जब मुख से दीन वचन निकल पड़ते हैं तब उसे दीनता कहते हैं।

उदाहरण
कवित्त

रैन दिन नैन दोऊ मास ऋतु पावस के,
बरसत बड़े बड़े बूंदनि सों झरिये।
मैन सर जोर मारे पवन झकोरनि सो,
आई है उमंगि छिनि छाती नीर भरिये॥
टूटो नेह नांव छूटौ श्यामसों सुहानुगुन,
ताते कविदेव कहैं कैसे धीर धरिये।
बिरह नदी अपार बूड़त ही मँझधार,
ऊधौ अब एक बार खेइ पार करिये॥

शब्दार्थ—मैन सर—कामदेव रूपी तालाब। कैसे......धरिये—धैर्य कैसे रखा जाय। मंझवार—बीच धार में। खेइ—खेकर।