पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४२
भाव-विलास

 

देव को देखती देवता सी, वृषभान लली न हली न चली सी।
नन्द के छोहरा की छवि सों, छिनु एक रही छवि छैल छली सी॥

शब्दार्थ—कालिन्दी—यमुना। तट—किनारा। ठौर ही ठाड़े—उस स्थान पर खड़े खड़े। चितौत—देखते हैं। नैकऊ—थोड़ा भी। वृषभान लली—राधा। न हली न चलीसी—बिल्कुल हिली नहीं। नन्द के छोहरा—श्रीकृष्ण। छवि—सुन्दरता। छिनुएक—एक क्षण तक। छलीसी—ठगीसी।

१७—दुःख
दोहा

उत्तम, मध्यम, नीचक्रम, लघु चिन्ता अप्रसाद।
महासोक ये धन गये, हित संसो सुविषाद॥

शब्दार्थ—अप्रसाद—दुःख, विषाद।

भावार्थ—अपने हित की सिद्धि न होने के कारण जो चिन्ता और विषाद होता है उसे दुःख कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

केलि करैं जल में मिलि बाल, गुपाल तहीं तट गैयन घेरे।
चोरि सबै हरवा हरवाइ दै, दूरि तें दौरि बछानु कों फेरे॥
हार हरें हिय मैं हहरें, तिय धीर धरे न करै इक टेरे।
राधिका ठाड़ी हरेई हरें हरिके मुख, और हँसै अरु हेरे॥

शब्दार्थ—गैयन—गाओं को। बछानु—बछड़ों। हेरे—देखे।