यहि भांति आठ बिधि कहत कवि, नाटक मत भरतादिसब।
अरु सांत यतन मत काव्य के, लौकिक रस के भेद नव॥
शब्दार्थ—चतुरथौ—चौथा। सातयो—सातवाँ।
भावार्थ—पहला शृंगार, दूसरा हास्य, तीसरा करुण, चौथा रौद्र, पांचवाँ वीर, छठा भयानक, सातवाँ वीभत्स और आठवाँ अद्भुत ये आठ भरतादि आचार्यों ने नाटकों के रस माने हैं। काव्य में इन आठों के अतिरिक्त एक रस शान्त ओर होता है।
दोहा
द्वै प्रकार सिंगार रस, है संभोग बियोग।
सोप्रच्छन्न प्रकाश करि, कहत चारि बिधि लोग॥
देव कहै प्रच्छन्न सो, जाकौ दुरौ विलास।
जानहिं जाको सकल जन, बरनैं ताहि प्रकास॥
शब्दार्थ—द्वै—दो। सिंगार—शृंगार। प्रच्छन्न—छिपा हुआ।
भावार्थ—शृंगाररस दो तरह का होता है, एक संयोग और दूसरा वियोग। इन दोनों के भी दो-दो भेद और होते हैं; प्रच्छन्न और प्रकाश। जो अप्रकट रहे वह प्रच्छन्न कहलाता है और जो प्रकट रहे वह प्रकाश।
उदाहरण पहला—(प्रच्छन्न संयोग)
सवैया
बाजि रही रसना रसकेलि मैं, कोमल के बिछियानु की बानी।
प्यारी रही परजङ्क निसंक पै, प्यारे के अंक महासुख सानी॥
भौं पर चापि चढ़ी उतरी, रंग रावटी आवत जात न जानी।
छोल छिपाइ न खोलि हियो, कविदेव दुहूँ दुरि के रति मानी॥