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पत्र : 'नेटाल एडवर्टाइजर' को

उतने ही ऊँचे उठनेका प्रयत्न करें ? क्या हितकारी प्रतिद्वन्द्वीका गला घोंटना अच्छी नीति है ? क्या यूरोपीय व्यापारियोंको, अगर उनकी शानमें बट्टा न लगता हो तो, भारतीय व्यापारियोंके जीवनसे सस्ता बेचना और सादगीसे रहना नहीं सीखना चाहिए ? "दूसरोंके साथ वैसा ही बरताव करो, जैसा तुम चाहते हो, दूसरे तुम्हारे साथ करें । "

परन्तु आपका कहना है कि ये अभागे एशियाई अर्धबर्बर जीवन बिताते हैं इसलिए अर्धबर्बर जीवनके बारेमें आपके विचार जानना बड़ा रोचक होगा। मुझे उनके जीवनके बारेमें कुछ कल्पना है । अगर कमरेमें खूबसूरत और मूल्यवान गलीचों तथा झाड़-फानूसका न होना, मेजका ( शायद बिना वार्निशकी) बेशकीमती मेज- पोश तथा फूलोंसे सजा हुआ और यथेष्ट शराब, सुअरके मांस तथा गोमांससे पूर्ण न होना ही अर्धबर्बर जीवन है; अगर गर्म आबहवाके लिए खास तौरसे अनुकूल बनाये गये सफेद, आरामदेह कपड़े पहनना ही, जिनके कारण, मैंने सुना है, बहुत से यूरोपीय ग्रीष्मकी कड़ी गर्मीमें उनसे ईर्ष्या करते हैं, अर्धबर्बर जीवन है; अगर बियर व तम्बाकू न पीना, खूबसूरत छड़ी लेकर न चलना, घड़ीका सुनहला पट्टा न बाँधना, विलासके साधनोंसे सजा हुआ कमरा न होना अर्धबर्बर जीवन है; संक्षेपमें, अगर आम तौरपर सादा तथा मितव्ययी माना जानेवाला जीवन अर्धबर्बर जीवन है - तब तो, अवश्य ही, भारतीय व्यापारियोंको यह आरोप स्वीकार करना होगा; और जितनी जल्दी यह अर्धबर्बरता उच्चतम औपनिवेशिक सभ्यतासे निःशेष कर दी जाये उतना ही अच्छा ।

सभ्य राज्योंसे लोगोंको निकालनेके लिए साधारणतः जो बातें कारणीभूत होती हैं, वे इन लोगोंमें बिलकुल ही पाई नहीं जातीं। मेरे इस कथनसे आप भी सहमत होंगे कि वे सरकारके लिए राजनीतिक दृष्टिसे खतरनाक नहीं हैं, क्योंकि वे राज- नीतिमें दखल देते ही नहीं; और अगर देते हैं तो बहुत थोड़ा । वे कोई कुख्यात डाकू नहीं हैं । मेरा विश्वास है कि भारतीय व्यापारियोंके बीच एक भी घटना ऐसी नहीं हुई, जिसमें किसी भारतीय व्यापारीको कैदकी सजा भोगनी पड़ी हो, या उसपर चोरी, डकैती अथवा अन्य अधम अपराधोंमें से किसीका आरोप भी किया गया हो । (इसमें अगर मेरी गलती हो तो मैं उसे सुधारनेके लिए तैयार हूँ।) उनकी शराबसे पूरे परहेजकी आदतोंने उन्हें विशेष शान्तिप्रिय नागरिक बना दिया है ।

परन्तु, प्रस्तुत अग्रलेखमें कहा गया है कि वे कुछ खर्च नहीं करते । खर्च करते ही नहीं ? तब तो वे, मैं कहूँ, हवा या इरादे खाकर जीते होंगे ! हम जानते हैं, 'वैनिटी फेअर' नामक उपन्यासमें बेकी बिना किसी वार्षिक आयके गुजर-बसर करती थी। परन्तु यहाँ तो वैसा करता हुआ एक वर्गका वर्ग ही खोज निकाला गया है । इससे यह मानना होगा कि उन्हें दूकान भाड़ा, कर, मांस बेचनेवाले तथा किरानेवाले- का पैसा, कारकुनोंका वेतन आदि कुछ चुकाना नहीं पड़ता । सचमुच, खास तौरपर आजकल, जब कि सारी दुनियाका व्यापार संकटकी हालतसे गुजर रहा है, ऐसे भाग्यशाली व्यापारियोंकी जमात में शामिल होना लोग कितना पसन्द करेंगे !