पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/१५

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सात

दूसरे शब्दोंमें, उन्होंने कभी उचित साध्यके लिए अनुचित साधनोंका प्रयोग नहीं किया। साधन चुननेमें वे इतनी अधिक सूक्ष्मतासे काम लेते थे कि साध्यकी सिद्धि भी साधनोंके गुण-दोषके अधीन हो जाती थी, क्योंकि उनका विश्वास था कि उचित साध्य अनुचित साधनोंसे प्राप्त नहीं किया जा सकता; और अनुचित साधनोंसे प्राप्त उद्देश्य तो उचित साध्यका विकृत रूप ही होगा।

उनके लेखों और भाषणोंके इस संग्रहका महत्त्व स्पष्टतः असन्दिग्ध और स्थायी है। इसमें उस विभूतिके अनुपम मानवीय और अत्यन्त कर्मठ सार्वजनिक जीवनकी छ: दशाब्दियोंके शब्द उपलब्ध हैं — ऐसे शब्द, जिन्होंने एक अनोखे आन्दोलनको रूप दिया, परिपुष्ट किया और सफलता तक पहुँचाया; ऐसे शब्द जिन्होंने संख्यातीत व्यक्तियोंकों प्रेरणा दी और प्रकाश दिखाया; ऐसे शब्द, जिन्होंने जीवनका एक नया ढंग खोजा और दिखाया; ऐसे शब्द, जिन्होंने उन संस्कृतिक मूल्योंपर जोर दिया, जो आध्यात्मिक तथा सनातन हैं, समय और स्थानकी परिधिके परे हैं और सम्पूर्ण मानवजाति तथा सब युगोंकी सम्पत्ति हैं। इसलिए, उनको संचित करनेका प्रयत्न शुभ है।

उनकी कार्य-पद्धति मनुष्यमें मनुष्यके प्रति आत्माकों स्फुरित कर देनेवाले इस विश्वासकी घोषणा है कि मनुष्यकी आध्यात्मिक सिद्धिमें नैतिक भमावना निहित हैं ही। उनकी कल्पनाकी स्वाधीनता कोरे कानूनों और राजकीय निर्णयोंसे प्राप्त नहीं की जा सकती, न वह केवल वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगतिसे ही प्राप्त हो सकती है। कोई भी समाज सच्चे अर्थमें स्वतंत्र तभी हो सकता हैं जब वह अपनेंको स्वतंत्रता के लिए अनुशासनबद्ध करें। ऐसे अनुशासनका आरम्भ व्यक्तिको अपने-आपसे करना आवश्यक है। जहाँतक भारतका राष्ट्रीय जीवन उनके विचारोसे प्रेरित और उनके विचारोंके साँचेमें ढला रहेगा वहाँतक वह स्फूर्तिका स्रोत बना रहेगा। जहाँतक स्वतन्त्र भारत उनके विचारोंको कार्यान्वित करेगा और उनसे उत्तरोत्तर उच्च समन्वय सिद्ध करता जायेगा, वहाँतक वह संस्कृतिकी मर्यादा विस्तृत करने और एक नई परम्परा स्थापित करनेंमें सफल होगा।

अबतक उनके बहुत-से विचार पूर्णतः आत्मसात नहीं किये गये हैं। यह तो माना जाता है कि समाज-व्यवस्थाके किसी भी उन्‍मुक्तिकारी स्वरूपका निर्णय इस बातसे किया जाना चाहिए कि वह अपने सदस्योको किस अशंतक प्रत्यक्ष स्वतन्त्रता प्रदान करती है; परन्तु इस वस्तुस्थितिको पर्याप्त मात्रामें नहीं समझा गया कि संगठनका — चाहे वह औद्योगिक हो, चाहे सामाजिक या राजनीतिक — जितना केन्द्रीकरण होता है, उससे उसी हदतक व्यक्तिकी स्वतन्त्रता घटती है। मध्यमार्गका स्वर्ण-नियम खोजना और अपनाना अभी शेष है। उनके अर्थशास्त्रकों बहुधा, आवश्यकतासे कम उत्पादनके साथ न सही, आत्मनिग्रहके साथ तो जोड़ ही दिया जाता है। उनके अनुशासनकी बातकी खिचड़ी नीरस और सौन्दर्यहीन कठोर नैतिकताके साथ पका दी जाती है। अपनी जरूरतें थोड़ी और सीमित रखकर उन्होंने पूर्ण और समृद्ध जीवन व्यतीत किया और अपने निजके रहन-सहनमें अपने विश्वासोंके सत्य होनेका प्रदर्शन