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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि विदेशमें बिलकुल अनजान किसी समिति या संस्थाके संरक्षणमें रखनेके बजाय उसे अपने पास रखें? जो इस बातको जानते हैं और जिन्हें जानना चाहिए, उनके लिए अभीतक यह स्पष्ट हो गया होगा कि यदि विद्यार्थी भटकने पर तुल जाये तो उसे कोई नहीं रोक सकता, कितनी भी निगरानीसे उसे सही रास्तेपर नहीं रखा जा सकता, विशेषतया जब निगरानी उपर्युक्त प्रकारको हो। या तो यह विश्वास करें कि वह अपना भला-बुरा देख लेगा या उसे बिलकुल न भेजें। सिर्फ सारा धन उसे ही न सौंप दें ताकि वह जो मनमें आये, करे और अपने कर्त्तव्यकी उपेक्षा करे। इंग्लैंडमें विद्यार्थीके सबसे ज्यादा बिगड़नेका कारण पैसा ही है। एकके बजाय दो विद्यार्थियोंको भी वर्षमें २५० पौंड दें तो उनका बिगड़ जाना जरा भी कठिन नहीं है। मैं यह तो कदापि नहीं कहता कि सालमें पचास पौंडसे एक पैनी भी ज्यादा खर्च करना फिजूलखर्ची है। उसकी तो बात ही नहीं है। इंग्लैंडमें एक वर्षमें ५०० पौंड भी उपयोगी ढंगसे खर्च किये जा सकते हैं। लेकिन इंग्लैंडमें ५०० पौंड प्रतिवर्ष उपयोगी ढंगसे कैसे खर्च किये जा सकते है, यह बताना इस पुस्तिकाका उद्देश्य नहीं है। इसका उद्देश्य तो यह बताना है कि आदमी प्रतिवर्ष ५० पौंड खर्च करते हुए सुखी रह सकता है और सामान्यतः ज्यादा खर्च करनेवाले भारतीय विद्यार्थी इंग्लैंडमें जो कुछ करते हैं, वह सब काम भी कर सकता है।

परिशिष्ट 'क' में आप देखेंगे कि मैंने किस तरह प्रतिमास १५ पौंडके खर्चको कम करके ४ पौंड किया और ऐसा करते हुए मुझे अपने आरामकी चीजोंमें से एकको भी नहीं छोड़ना पड़ा।

परिशिष्ट 'क'

मैं इंग्लैंडमें वकालतकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिए ४ सितम्बर १८८८ को एस० एस० 'क्लाईड' से रवाना हुआ। मेरे साथ दो भारतीय थे जिन्हें मैं पहले नहीं जानता था। हम तीनों भारतीय हैं, इतना ही हमारे लिए पर्याप्त परिचय था ।

जहाजमें मैंने कैसे निर्वाह किया: क्योंकि मैं निश्चित रूपसे नहीं जानता था कि जहाजमें दिया जानेवाला शाकाहारी भोजन मुझसे खाया जा सकेगा या नहीं, इसलिए मेरे पास भारतीय मिठाइयों, गांठिया और भारतीय फलोंका अच्छा खासा भण्डार था। यह जहाजकी यात्राका मेरा पहला अनुभव था। इसलिए मैं इतना संकोच और शर्म करता था कि सबके साथ चाय पीने भी नहीं जाता था।

इसलिए मैंने मिठाइयोंसे शुरू किया। दो-तीन दिन तो मैंने सिर्फ मिठाई ही खाई; और बहुत दिनतक ऐसा ही कर सकता था, पर उपर्युक्त एक भारतीय मित्रने कहा कि उसे तो रोटी और भात और दाल बहुत प्रिय है। इसलिए उसने एक भारतीय नाविकसे इन चीजोंको पकवानेका प्रबन्ध किया। जहाजके अधिकारियोंने आटा

१. देखिए “लन्दन दैनन्दिनी" १२-११-१८८८ ।

२.देखिए आत्मकथा, भाग १, अध्याय १३।