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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी, कर्तव्य समझकर, सदा दुआ करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
नेटाल एडवर्टाइजर, ५-७-१८९४

४१. दादाभाई नौरोजीको लिखे पत्रका अंश

डर्बन

५ जुलाई, १८९४

उत्तरदायी शासनमें नेटालकी पहली संसद प्रमुखतः एक भारतीय संसद ही रही है। वह अधिकांशतः भारतीयोंपर असर डालनेवाले कानून बनाने में व्यस्त रही। ये कानून किसी भी तरह प्रवासी भारतीयोंके अनुकूल नहीं है । गवर्नरने विधानपरिषद और विधानसभाका उद्घाटन करते हुए कहा था कि भारतमें कभी मताधिकार प्रयोग न करनेपर भी नेटालमें भारतीय प्रवासी उसका प्रयोग कर रहे हैं। मेरे मन्त्री मताधिकारके इस विषयको सुलझायेंगे। भारतीयोंका मताधिकार छीननेके लिए सर्व-ग्राही कानून बनानेके कारण ये बताये गये थे कि उन्होंने पहले कभी मताधिकारका प्रयोग नहीं किया, और वे उसके लिए योग्य नहीं है।

भारतीयोंका प्रार्थनापत्र इसका पर्याप्त उत्तर साबित होता दीख पड़ा। फलतःअब उन्होंने अपना तरीका बदलकर विधेयकका सच्चा ध्येय प्रकट कर दिया है, जो महज यह है : "हम नहीं चाहते कि भारतीय यहाँ और रहें। मजदूर हम जरूर चाहते हैं। परन्तु यहाँ वे गुलाम ही बनकर रहेंगे। जैसे ही वे आजाद हुए, फौरन भारत लौट जायेंगे। मेरा हार्दिक अनुरोध है कि आप इसपर पूरा-पूरा ध्यान दें और आपका जो प्रभाव हमेशा भारतीयोंके पक्षमें काम आया है--भले वे कहीं भी क्यों न हों--उसका उपयोग करें। भारतीय आपकी ओर वैसे ही आशाको दृष्टिसे देखते हैं, जैसे बच्चे पिताकी ओर देखते हैं। यहाँकी भावना यथार्थमें ऐसी ही है।

दो शब्द अपने बारेमें भी लिखकर इसे खत्म करूँगा। अभी मैं नौजवान और अनुभवहीन हूँ। इसलिए बिलकुल सम्भव है कि मुझसे कहीं गलती हो जाये। मैंने जो जिम्मेदारी उठाई है वह मेरी योग्यतासे कहीं बड़ी है। यह भी बता दूं कि मैं यह कार्य बिना मेहनतानेके कर रहा हूँ। इसलिए आप देखेंगे कि मैंने अपने सामर्थ्यसे बाहरका यह काम भारतीयोंके धनसे धनी बननेके लिए नहीं उठाया है। यहाँके लोगोंमें मैं अकेला ही ऐसा हूँ जो इस प्रश्नके दायित्वको निभा सकता है। इसलिए अगर आप कृपाकर मेरा मार्ग-दर्शन करते रहें और मुझे उचित सुझाव देते रहे तो मैं बहुत आभारी हूँगा। मैं आपके सुझावोंको वैसे ही स्वीकार करूँगा जैसे कोई पुत्र अपने पिताके सुझावोंको।

[अंग्रेजीसे]

दादाभाई नौरोजी: द ग्रेड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया