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प्रार्थनापत्र : लोर्ड रिपनको

तथा अन्य स्थानोंसे विधानपरिषदके नाम तार भेजकर प्रार्थनापत्रका समर्थन किया गया था। परन्तु उन तारोंको इस बिनापर अनियमित ठहरा दिया गया कि वे परिषदके किसी सदस्यकी मार्फत पेश नहीं किये गये। प्रार्थी इसके साथ अपने विभिन्न प्रार्थनापत्र नत्थी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन सबको तो निस्सन्देह सरकार आपके पास भेजेगी ही।

(७) प्रार्थनापत्र पेश करने के चार दिन बाद, अर्थात् सोमवार, २ जुलाई, १८९४को, प्रार्थियोंकी अपेक्षाके विरुद्ध, और उनके लिए अत्यन्त खेदजनक रूपमें, विधेयकका तीसरा वाचन स्वीकार हो गया।

(८) मंगलवारको आपके प्रार्थियोंने माननीय विधानपरिषदको एक प्रार्थनापत्र भेजा। उसे माननीय श्री कैम्बेलकी मार्फत पेश किया गया था। परन्तु उसमें विधानसभा सम्बन्धी उल्लेख होने के कारण उसे नियमबाह्य ठहरा दिया गया, और विधेयकका दूसरा वाचन हो गया। जैसे ही आपके प्राथियोंको इसका पता चला, उन्होंने बिना समय खोये विधानपरिषदके नाम दूसरा प्रार्थनापत्र तैयार करके गुरुवारको भेज दिया। शुक्रवारको उन्हीं माननीय सदस्यने उसे पेश किया। इसी बीच, अर्थात् दूसरे वाचनके बाद एक दिनके अन्दर ही, विधेयक समिति द्वारा स्वीकार हो गया था। माननीय श्री कैम्बेलने विधेयकके तीसरे वाचनको स्थगित करने का प्रस्ताव किया, ताकि उपर्युक्त प्रार्थनापत्रपर विचार किया जा सके। परन्तु प्रस्ताव इस आधारपर अस्वीकृत हो गया कि प्रार्थनापत्र “बहुत विलम्बसे" पेश किया गया है। आप देखेंगे कि विधेयक मुश्किलसे चार दिन विधानपरिषदके सामने रहा। प्रार्थी यह भी बता दें कि भारतीय समाजके प्रमुख सदस्योंने माननीय सर वॉल्टर एफ० हेली-हचिन्सनसे मिलनेके लिए एक शिष्टमण्डल नियुक्त किया था। सर वॉल्टरने बड़ी सहृदयता और शिष्टताके साथ शिष्टमण्डलकी बातें सुनीं। माननीय सदस्योंके व्यक्तिगत मत जाननेके लिए भारतीयोंकी एक समितिने उन्हें एक छपा हुआ परिपत्र[१] भेजा था और उनसे कुछ प्रश्नोंके उत्तर देनेका अनुरोध किया था। परिपत्र और प्रश्नावली दोनों इसके साथ नत्थी हैं। अबतक तो केवल एक सदस्यने ही उत्तर भेजा है, परन्तु उन्होंने भी प्रश्नोंके उत्तर नहीं दिये।

(९) मताधिकार विधेयककी आलोचना करनेके पहले एक दलीलको, जो प्राथियोंके विरुद्ध काममें लाई गई है, निबटा देनेकी प्रार्थी अनुमति चाहते हैं। दलील यह है कि प्राथियोंने विधानसभाको बहुत देरीसे अर्जी दी। इस विषयमें प्रार्थियोंका कहना इतना ही है कि कायदेके मुताबिक देरी नहीं हुई थी। इसके अलावा, प्रश्न इतने महत्त्वके थे, तथा है, और विधेयकका सम्राज्ञीकी भारतीय प्रजाके साथ इतना गहरा सम्बन्ध था, तथा है, कि अगर सरकारने या विधानसभा या विधानपरिषदने विधेयकका तीसरा वाचन स्वीकार होने देनेके पहले अपने निर्णयपर फिरसे विचार किया होता और प्राथियोंके मामलेकी भली-भाँति जाँच कराई होती तो अनुचित न होता।

  1. १. देखिए “ परिपत्र : संसद-सदस्यों के नाम", १-७-१८९४।