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पत्र : 'टाइम्स ऑफ नेटाल' को


(२५) कमेटी के सदस्य एक घेरेमें और दर्शकगण उसके बाहर बैठेंगे। दर्शक बैठककी कार्रवाइयोंमें कोई हिस्सा नहीं ले सकते। अगर वे शोर-गुल आदि करके कोई गड़बड़ी मचायें तो उन्हें सभाभवन से निकाला जा सकता है।

(२६) कमेटीको भविष्य में इन नियमोंमें संशोधन करनेका अधिकार होगा।[१] अंग्रेजी (एस° एन° १४१ ) की फोटो-नकलसे।

 

५०. पत्र : ‘टाइम्स ऑफ नेटाल’ को[२]

डर्बन
२५ अक्तूबर, १८९४

सेवामें

सम्पादक

'टाइम्स ऑफ नेटाल'
महोदय,

आपकी अनुमति से मैं आपके २२ तारीख के अंकमें प्रकाशित “रामीसामी " शीर्षक अग्रलेखपर कुछ राय व्यक्त करनेकी घुष्टता करता हूँ ।

'टाइम्स ऑफ इंडिया' के जिस लेखका आपने उल्लेख किया है, उसकी सफाई देनेका मेरा इरादा नहीं है। परन्तु क्या आपका अग्रलेख ही उसकी सफाई नहीं दे देता? क्या "रामीसामी" ही गरीब भारतीयोंके प्रति ख़्वाहमख्वाह तिरस्कार उगलने-वाला शीर्षक नहीं है? क्या साराका सारा लेख ही उनका व्यर्थ अपमान करनेवाला नहीं है? आपने कृपा करके स्वीकार किया है कि "भारतमें सुसंस्कृत लोग मौजूद हैं," आदि। और फिर भी, अगर आपके वशकी बात हो तो, आप उनको गोरोंके बराबर राजनीतिक अधिकार नहीं देंगे। क्या इस प्रकार आप जलेपर नमक छिड़कने जैसा काम नहीं कर रहे हैं? अगर आप मानते होते कि भारतीय सुसंस्कृत नहीं हैं, बल्कि बर्बर, ज्ञानहीन प्राणी हैं; और अगर आपने उनको इसी आधारपर राजनीतिक समानता देनेसे इनकार किया होता, तो आपके मन्तव्य कुछ सकारण होते। परन्तु आप तो निरपराध लोगोंके अपमानसे प्राप्त आनन्दका अधिक से अधिक उपभोग करनेके लिए यह बताना जरूरी समझते हैं कि आप उन्हें बुद्धिमान मानते हैं, और फिर भी उन्हें पैरोंके नीचे कुचले रहेंगे।

फिर, आपने कहा है कि उपनिवेशवासी भारतीय वैसे ही नहीं हैं, जैसे भारत में रहनेवाले भारतीय। परन्तु महोदय, आप आसानीसे यह भूल जाते हैं कि वे उसी जातिके लोगोंके भाई-बन्द और वंशज हैं, जिसको आपने बुद्धिमानीका श्रेय प्रदान किया

 
  1. १. गांधीजीके हस्ताक्षरोंमें लिखी हुई संविधानकी एक अंग्रेजी और एक गुजराती प्रति भी उपलब्ध है।
  2. २. इसे "रामीसामी" शीर्षकके अन्तर्गत प्रकाशित किया गया था।