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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बनर्जी[१] और मेहता[२] जैसे वक्ता हैं, जिन्होंने अनेक अवसरोंपर इंग्लिस्तानके श्रोताओं-को मन्त्रमुग्ध किया है।

ऐसा है भारत। अगर यह चित्र आपको कुछ अतिरंजित अथवा लहरी मालूम होता हो, तो भी यह सच्चा है। अवश्य ही इसका दूसरा पहलू भी है। मगर उस पहलूका चित्रण वह करे, जिसे दोनों राष्ट्रोंको मिलानेकी अपेक्षा अलग करनेमें आनन्द मिलता हो। बादमें आप डैनिएलकी निष्पक्षतासे दोनोंको परखें। मेरा दावा है कि तब भी ऊपर कही हुई बातोंका भारी अंश अक्षुण्ण रहेगा और वह आपको विश्वास दिला देगा कि भारत आफ्रिका नहीं है, वह सभ्यता शब्दके शुद्धतम अर्थ में एक सभ्य देश है।

तथापि, इस विषयको समाप्त करनेके पहले मैं एक सम्भव आपत्तिको ताड़ लेनेकी इजाजत माँगता हूँ। वह होगी: "आप जो कह रहे हैं वह अगर सत्य है, तो इस उपनिवेशके जिन लोगोंको आप भारतीय कहते हैं वे भारतीय नहीं हैं। कारण यह है कि उनके आचार-व्यवहारसे आपके मन्तव्यकी पुष्टि नहीं होती। देखिए, कैसे ठेठ झूठे हैं वे।" इस उपनिवेशमें मैं जिससे भी मिला हूँ, हर-एकने भारतीयोंकी असत्यवादिताकी बात कही है। कुछ हदतक मैं इस आरोपको स्वीकार भी करता हूँ। परन्तु अगर मैं इस आपत्तिका उत्तर यह कहकर दूँ कि दूसरे वर्ग भी, खास तौरसे इन अभागे भारतीयोंकी हालतोंमें रखे जानेपर, ज्यादा अच्छे नहीं ठहरते, तो यह मेरे लिए बड़े अल्प संतोषकी बात होगी। फिर भी, अंदेशा है कि मुझे उस तरहके तर्कका सहारा लेना ही होगा। मैं चाहता तो बहुत हूँ कि वे ऐसे न हों, परन्तु यह सिद्ध करनेमें अपनी पूरी असमर्थता कबूल करता हूँ कि वे मनुष्य नहीं, मनुष्यसे कुछ ज्यादा हैं। वे भुखमरीकी मजदूरीपर नेटाल आये हैं। (मेरा मतलब सिर्फ गिरमिटिया भारतीयों से है)। वे अपने-आपको एक विचित्र स्थिति और प्रतिकूल वातावरणमें पाते हैं। जिस क्षण वे भारतसे रवाना होते हैं, उसी क्षणसे, अगर वे उपनिवेशमें बस जाते हैं तो, सारा जीवन उन्हें बिना किसी नैतिक शिक्षाके रहना पड़ता है। हिन्दू हों या मुसलमान, उन्हें नाम-लायक कोई नैतिक या धार्मिक शिक्षा बिलकुल ही नहीं दी जाती और वे खुद इतने पढ़े-लिखे होते नहीं कि दूसरोंकी सहायताके बिना स्वयं शिक्षा प्राप्त कर लें। ऐसी हालत में वे झूठ बोलनेके छोटेसे-छोटे प्रलोभनके भी शिकार हो सकते

 
  1. १. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (१८४८-१९२५): नरम दलीय नेता। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके शिष्टमण्डलके सदस्यको हैसियतसे १८९० में ब्रिटेन गये थे। बंगालको विधान परिषदके सदस्य (१८९३-१९०१)। कलकत्तेके प्रमुख समाचारपत्र बंगालीके मालिक और सम्पादक। मॉन्टफर्ड सुधारोंके अन्तर्गत वाइसरायकी कार्यकारिणी परिषद के सदस्य। १८९५ और १९०२ में कांग्रेसके अध्यक्ष।
  2. २. फीरोजशाह मेहता (१८४५-१९१५): भारतीय नेता; बहुत दिनोंतक बम्बई सार्वजनिक जीवनका सूत्र संचालन इनके ही हाथमें रहा। बम्बई प्रेसिडंसी एसोसिएशनके एक संस्थापक और तीन बार बम्बई कारपोरेशनके अध्यक्ष। बम्बई विधानपरिषद और बादमें वाइसरायकी कार्यकारिणीके सदस्य। १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी स्थापना करवाले नेताओं में से एक। १८९० और १९०९ में दो बार उसके अध्यक्ष निर्वाचित।