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पत्र: यूरोपीयोंके नाम

है, जबतक कि अंग्रेजोंके पास भारतीयोंको नियन्त्रणमें रखनेके साधन पर्याप्त हैं और स्वभावसे शान्त भारतीय परेशान होकर विदेशी प्रभुत्वके विरुद्ध सक्रिय विरोध आरंभ नहीं कर देते। मैं यह याद भी दिलाता हूँ कि इंग्लैंडके अंग्रेजोंने अपने लेखों, व्याख्यानों और कृतियों द्वारा दिखा दिया है कि उनका आशय दोनों राष्ट्रोंके हृदयोंको एक करने का है और वे रंग-भेदमें विश्वास नहीं करते। वे भारतके विनाशपर अपनी उन्नति साधना नहीं, बल्कि उसे अपने साथ-साथ ऊपर उठाना पसन्द करेंगे। इसके समर्थन में मैं आपको ब्राइट, फॉसेट, ग्लैड्स्टन, वेडरबर्न, पिनकाट, रिपन, रे, नॉर्थब्रुक, डफरिन और लोकमतका प्रतिनिधित्व करनेवाले अनेकानेक अन्य अंग्रेजोंके नामोंका हवाला देता हूँ। तत्कालीन प्रधानमंत्रीके विरोध व्यक्त करनेपर भी, एक अंग्रेज मतदाता क्षेत्रने एक भारतीयको ब्रिटिश लोकसभाका सदस्य चुन दिया है।[१] सारे उदार और अनदार ब्रिटिश पत्रोंने उस भारतीय सदस्यको उसकी सफलता पर बधाई दी है। उन्होंने इस अनोखी घटनाकी सराहना भी की है। और फिर, उदार और अनुदार दोनों दलोंके पूरे सदनने उसका हार्दिक स्वागत किया है। सिर्फ एक इस वस्तुस्थितिको ही ले लिया जाये तो, मेरा निवेदन है, मेरे कथनकी पुष्टि हो जाती है। यह सब देखते हुए आप उनका अनुसरण करेंगे या अपने लिए एक अलग रास्ता बनायेंगे? आप एकताको बढ़ायेंगे, "जो प्रगतिका निमित्त होती है," या वैमनस्यको बढ़ायेंगे, "जो अधःपतनका निमित्त होता है"?

अन्तमें मेरी प्रार्थना है कि आप इस पत्रको उसी भावसे ग्रहण करें, जिससे यह लिखा गया है।

आपका आज्ञाकारी सेवक,

मो° क° गांधी

अंग्रेजी पुस्तिकासे।

 

५४. पत्र : यूरोपीयोके नाम[२]

बीच ग्रोव
डर्बन
१९ दिसम्बर, १८९४

महोदय,

मैं संलग्न 'खुली चिट्ठी' आपके अवलोकनार्थ भेज रहा हूँ और इसकी विषय-सामग्रीपर आपके अभिप्रायकी याचना करता हूँ।

आप धर्मोपदेशक, सम्पादक, लोकसेवक, व्यापारी या वकील, कोई भी हों, यह विषय आपके ध्यानकी अपेक्षा रखता है। अगर आप धर्मोपदेशक हैं तो, जहाँतक आप

 
  1. आशय १८९३ में सेंट्रल फिन्सबरी क्षेत्रसे दादाभाई नौरोजीके चुनावसे है।
  2. छपा हुआ यह परिपत्र गांधीजीने नेटालके यूरोपीयोंको भेजा था।