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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ईसाके उपदेशोंका निरूपण करते हैं, आपका कर्त्तव्य होना चाहिए कि आप अपने सहजीवी भाइयोंके साथ किये जानेवाले किसी भी ऐसे व्यवहारके प्रति, जो ईसाको खुश करनेवाला न हो, प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी प्रकारकी कोई अनुकूलता न दिखायें। अगर आप पत्र-सम्पादक हैं तो भी जिम्मेदारी उतनी ही बड़ी है। पत्रकारकी हैसियतसे आप अपने प्रभावका उपयोग मानव-जातिके विकासके लिए कर रहे हैं या ह्रासके लिए यह इस बातपर निर्भर करेगा कि आप विभिन्न वर्गोंके बीच फूटको उत्तेजना देते हैं, या एकता स्थापित करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। यही विचार लोकसेवककी स्थिति में भी आपपर लागू होंगे। अगर आप व्यापारी या वकील हैं तो भी आपका अपने ग्राहकों या मुवक्किलोंके प्रति कुछ कर्त्तव्य है, क्योंकि उनसे आपको बहुत आर्थिक लाभ होता है। यह आपके हाथ है कि आप उनके साथ कुत्तों-जैसा व्यवहार करें या उन्हें अपने सहजीवी भाई मानें, जो उपनिवेशमें भारतीयोंके सम्बन्ध में फैले हुए अज्ञानके कारण क्रूरतापूर्ण अत्याचारोंके शिकार बने हुए हैं और इसमें आपकी सहानुभूतिकी अपेक्षा करते हैं। आपका उनके साथ अपेक्षाकृत अधिक निकट सम्पर्क होता है। इसलिए अवश्य ही आपको उन्हें समझने का मौका और प्रयोजन भी है। सहानुभूतिकी दृष्टिसे देखनेपर शायद वे आपको उस रूप में दीख पड़ेंगे, जिस रूपमें मौका पानेवाले और मौकेका ठीक उपयोग करनेवाले सैकड़ों यूरोपीयोंने उन्हें देखा है।

अगर मान लिया जाये कि उपनिवेशवासी भारतीयोंके साथ जैसी अपेक्षा की जाती है, ठीक वैसा व्यवहार नहीं होता, तो क्या यहाँ कोई ऐसे यूरोपीय हैं जो उनके साथ सक्रिय सहानुभूति रखें और उनके प्रति आत्मीयता प्रदर्शित करें? 'खुली चिट्ठी' की विषय-सामग्रीपर आपकी राय यही तय करनेके लिए माँगी गई है।

आपका विश्वस्त सेवक,

मो° क° गांधी

अंग्रेजी (एस° एन° २०१) से।

५५. पत्र: 'नेटाल एडवर्टाइजर' को

डर्बन
२१ जनवरी, १८९५

सेवामें
सम्पादक
'नेटाल एडवर्टाइजर'

महोदय,

आपके विज्ञापन-स्तम्भोंमें एसॉटरिक क्रिश्चियन यूनियन और लंदन वेजिटेरियन सोसाइटी सम्बन्धी जो सूचना छपी है उसकी ओर अगर आप मुझे अपने पाठकोंका ध्यान आकर्षित करनेका अवसर दें तो मैं आपका आभारी होऊँगा।