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प्रार्थनापत्र : लॉर्ड रिपनको

रखनेवाले यूरोपीय भी परोपजीवी नहीं मानते। प्रार्थी अपने व्यक्तिगत अनुभवसे कहनेकी इजाजत चाहते हैं कि जहाँतक बहुसंख्य मजदूरोंका सम्बन्ध है, वे अपने रहन-सहन पर वित्तसे ज्यादा खर्च करते हैं, और अपने परिवारोंके साथ बसे हुए हैं। व्यापारी भारतीयोंके बारेमें, जो सारे राग-द्वेषके लक्ष्य हैं, थोड़ा-सा स्पष्टीकरण आवश्यक हो सकता है। प्रार्थियोंमें जो व्यापारी हैं वे इस बातसे इनकार नहीं करते कि वे भारतमें अपने आश्रितोंको रुपया भेजते हैं। उलटे, वे इसे स्वीकार करनेमें गौरव मानते हैं। परन्तु ये रकमें उनके खर्चके अनुपात में कुछ भी नहीं हैं। वे सफलतापूर्वक प्रतिद्वन्द्विता सिर्फ इस कारणसे कर पाते हैं कि वे यूरोपीय व्यापारियोंकी अपेक्षा विलासकी वस्तुओंपर खर्च कम करते हैं फिर भी उन्हें यूरोपीय मकान मालिकोंको किराया, देशी नौकरोंको मजदूरी और डच पशु-पालकोंको मांसके लिए जानवरोंका मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है। अन्य सामग्रियाँ, जैसे चाय, काफी आदि भी उपनिवेशमें ही खरीदनी पड़ती हैं।

(३६) तो फिर, सच्चा सवाल यह नहीं है कि भारतीयोंको इस गलीमें रहना है या उसमें। सच्चा प्रश्न तो बल्कि यह है कि सारे दक्षिण आफ्रिकामें उनकी क्या हैसियत होगी। क्योंकि, ट्रान्सवालमें जो कुछ किया जाता है उसका असर अन्य दो उपनिवेशोंकी कार्रवाइयोंपर भी पड़ेगा। साधारण रूपसे इस विषयमें सब लोगोंका एक ही मत दिखलाई पड़ता है कि, इस सवालका निबटारा सबकी दृष्टिसे एक सर्वमान्य आधारपर करना होगा। स्थानिक परिस्थितियोंके अनुकूल उसमें आवश्यक संशोधन किये जा सकते हैं।

(३७) जो भी भावना 'व्यक्त की गई है', वह भारतीयोंको काफिरोंकी स्थिति में गिरा देनेकी है। परन्तु यूरोपीय समाजके एक बड़े हिस्सेकी भावना बिलकुल इसकी उलटी है। वह जोरोंसे व्यक्त तो नहीं की गई, फिर भी जहाँ-तहाँ समाचारोंमें ध्वनित होती रहती है।

(३८) नेटाल उपनिवेश दूसरे दक्षिण आफ्रिकी राज्योंको एक 'कुली' सम्मेलनके लिए आमन्त्रित कर रहा है। इस प्रकार 'कुली' शब्दको सरकारी तौरपर काममें लाया गया है। इससे मालूम होता है कि भारतीयोंके खिलाफ व्यक्त भावना कितनी उग्र है और अगर सम्मेलन कर सका तो वह इस प्रश्नके बारेमें क्या करेगा। पंचके सामने पेश किये हुए मामलेमें ट्रान्सवाल सरकारने कहा है कि 'कुली' शब्द एशिया से आये हुए किसी भी व्यक्तिपर लागू होता है।

(३९) जब दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके विरुद्ध इतनी उग्र भावना फैली हुई है, जब उस भावनाका मूल स्वार्थमय आन्दोलन है (जैसा कि, आशा है, ऊपर पर्याप्त रूपसे दर्शा दिया गया है), जब यह ज्ञात है कि वह भावना सब यूरोपीयोंकी नहीं हैं, जब दक्षिण आफ्रिकामें घनके लिए आम तौरपर छीनाझपटी मची हुई है, जब लोगोंकी नैतिक अवस्था विशेष ऊँची नहीं है, जब भारतीयोंकी आदतोंके खिलाफ बड़ीसे-बड़ी गलतबयानियाँ की जा रही हैं, जिनसे कानूनका आविर्भाव हुआ है, तब, प्रार्थियोंका निवेदन है, महानुभावसे यह प्रार्थना करना बहुत ज्यादा न होगा कि