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प्रार्थनापत्र : जो° चेम्बरलेनको


(१७) उपधाराओंमें अन्याय इतना स्पष्ट और प्रबल दिखाई पड़ता कि 'नेटाल एडवर्टाइजर' ने भी उसे महसूस किया है। यह पत्र भारतीयोंका पक्षपाती बिलकुल ही नहीं है। उसने १६ मई, १८९५ को निम्नलिखित शब्दों में अपना विचार व्यक्त किया है :

विधेयकको दण्ड सम्बन्धी उपधारा मूलतः इस आशयकी थी कि जो भारतीय भारत न लौटे, उसे "सरकारको एक वार्षिक कर देना चाहिए।" मंगल वारको महान्यायवादीने प्रस्ताव किया कि इसे इन शब्दों में बदल दिया जाये : "उपनिवेश में रहनेके लिए एक परवाना निकालना चाहिए", जिसके लिए तीन पौंडकी रकम देनी होगी। निश्चय ही यह एक बेहतर परिवर्तन है। इससे वही उद्देश्य कम अप्रिय तरीकेसे पूरा हो जाता है। फिर भी, कुली प्रवासियों-पर एक विशेष कर लगाने के इस प्रस्तावसे एक मोटा प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। यदि साम्राज्यके ही एक अन्य भागसे आनेवाले कुलियोंपर यह निर्योग्यता लादी जाती है, तो निश्चय ही इसका क्षेत्र अन्य गैर-यूरोपीय जातियों तक भी बढ़ाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वह चीनियों, अरबों, राज्यके बाहरसे आने वाले काफिरों और इस तरहके सभी यात्रियोंपर लागू होना चाहिए। कुलियोंको खास तौर से चुनकर उनपर ही इस प्रकारकी रुकावटें लगाना और दूसरे सब विदेशियों को बिना किसी विघ्न-बाधा और निर्योग्यताके बसने देना न्याय नहीं है। अगर विदेशियोंपर कर लगाने की प्रथा शुरू करनी ही है, तो उसका आरम्भ उन जातियोंसे होना चाहिए जो अपने देशमें ब्रिटिश झंडेके अधीन नहीं हैं। उन जातियोंसे नहीं जो, हम पसन्द करें या न करें, उसी सम्राज्ञीकी प्रजा हैं, जिसकी हम हैं। हमें असाधारण रुकावटें लादना है तो उसके लिए ये लोग पहले नहीं, अन्तिम होने चाहिए।

(१८) प्रार्थी निवेदन करते हैं कि यह व्यवस्था किसी भी न्यायशील व्यक्तिको जरा भी पसन्द नहीं आई। भारत सरकारको, भले ही वह कितनी ही अनिच्छुक क्यों न रही हो, गिरमिटकी अवधि असीमित रूपमें बढ़ा देनेके लिए नेटालके प्रतिनिधियोंने किस तरह राजी किया, यह जाननेका दावा प्रार्थी नहीं करते। परन्तु वे यह आशा अवश्य करते हैं कि गिरमिटिया भारतीयोंके मामलेपर, जिस रूपमें उसे यहाँ पेश किया गया है, भारत तथा ब्रिटेन दोनोंकी सरकारें पूरा ध्यान देंगी। और, एकतरफा आयोगकी दलीलोंपर दी गई किसी भी मंजूरीके कारण गिरमिटिया भारतीयोंके मामलेको बिगड़ने न दिया जायेगा।

(१९) तात्कालिक संदर्भके लिए, प्रार्थी नेटालके गवर्नरके नाम वाइसराय महोदय के १७ सितम्बर, १८९४ के खरीतेके निम्नलिखित अंश यहाँ उद्धृत करते हैं :

मैंने खुद वर्तमान व्यवस्थाका जारी रहना पसन्द किया होता, जिसके अधीन गिरमिटियोंके लिए अवधि पूरी हो जानेके बाद स्वतन्त्र रूप से उपनिवेशमें बस जानेका मार्ग खुला रहता है। जिन विचारोंके अनुसार ब्रिटिश शंडेके अधीन