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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


की या कर बढ़ाने की या दोनोंकी। इस परिणामका और दूसरे परिणामोंका, जो इतने अधिक हैं कि उनका विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया जा सकता, मुकाबला कीजिए, और फिर अगर अंधी जाति-भावना या ईर्ष्याको ही प्रबल होने देना है तो होने दीजिए।

आयोगके सामने श्री बिन्सने इस आशयकी गवाही दी थी (पृष्ठ १५६) :

मेरे खयाल से स्वतन्त्र भारतीय आबादी समाजका सबसे उपयोगी अंग है। ये भारतीय एक बहुत बड़े अनुपात में साधारणतः जो माना जाता है उससे कहीं बड़े अनुपातमें-उपनिवेशको नौकरियोंमें लगे हुए हैं। खास तौरसे वे शहरों और गाँवों में घरेलू नौकरोंका काम कर रहे हैं। वे बहुत बड़े उत्पादक भी हैं। मैंने जो जानकारी प्रयत्नपूर्वक इकट्ठी की है, उसके अनुसार स्वतन्त्र भारतीय पिछले दो-तीन वर्षो से लगभग एक लाख मन मकई सालाना पैदा करते हैं। भारी मात्रा में तम्बाकू और दूसरी चीजोंकी पैदावार करते हैं सो अलग। स्वतन्त्र भारतीयोंकी आबादी होने के पहले पीटरमैत्सिबर्ग और डर्बनमें फल, शाक-सब्जी और मछली बिल्कुल नहीं मिलती थी। इस समय ये सब चीजें पूरी-पूरी उपलब्ध हैं।

यूरोपसे कभी कोई ऐसे प्रवासी नहीं आये, जिन्होंने बड़े पैमाने पर बागवानी या मछलीके धन्धे में रुचि दिखाई हो। और मेरा खयाल है कि अगर भारतीय न हों तो पीटरमैरित्सबर्ग और डर्बनके बाजारोंमें आज भी इन चीजों की वैसी ही कमी रहेगी, जैसी दस वर्ष पूर्व रहती थी।

. . . अगर कुलियोंका आगमन पक्के तौरपर बन्द कर दिया जाये तो शायद यूरोपीय मिस्तरियोंकी मजदूरीकी दरोंमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। परन्तु थोड़े ही दिन बाद उनके लिए उतना काम नहीं रहेगा, जितना अभी है। गरम देशकी खेती भारतीय मजदूरोंके बिना न कभी हुई, न होगी।

तत्कालीन महान्यायवादी और वर्तमान मुख्य न्यायाधीशने आयोगके सामने यह गवाही दी थी (पृष्ठ ३२७) :

. . . मेरे खयालसे, भारतीय प्रवासियोंके बड़ी संख्या में लाये जानेसे ही बहुत हदतक तटवर्ती प्रदेशमें गोरे प्रवासियोंको मात मिली है। उन्होंने वह जमीन जोती, जो उनके न जोतने पर बंजर बनी रहती, और उसमें ऐसी फसलें बोईं जो उपनिवेशवासियोंके सच्चे लाभकी हैं। भारत लौटनेके मुफ्त टिकटका फायदा न उठानेवाले बहुत-से लोग विश्वस्त और उपयोगी घरेलू नौकर साबित हुए हैं।

गिरमिट मुक्त और स्वतन्त्र दोनों वर्गोंके भारतीय सामान्यतः उपनिवेशके लिए बहुत फायदेमन्द सिद्ध हुए हैं — यह और भी जोरदार प्रमाणोंसे सिद्ध किया जा सकता है। आयुक्त अपनी रिपोर्टके पृष्ठ ८२ पर कहते हैं :