कुछ लोग एशिवाई या 'अरब' व्यापारियोंपर जो प्रतिबन्ध लगाने के इच्छुक हैं, उनपर विस्तार के साथ विचार करना आयोगके कार्यक्षेत्रके बाहर है। अतः हम व्यापक निरीक्षण के आधारपर अपना यह दृढ़ अभिप्राय अंकित करके ही सन्तोष मानते हैं कि इन व्यापारियोंका यहाँ रहना सारे उपनिवेशके लिए हितकारी हुआ है। और उनके खिलाफ कानून बनाना अगर अन्यायपूर्ण न हुआ, तो भी अबुद्धिमत्तापूर्ण तो होगा ही!' (अक्षरोंमें फर्क मैंने किया है।)
मैंने जरा विस्तृत उद्धरण दिये हैं। इससे मेरा यह तर्क करनेका इरादा नहीं है कि भारतीयोंको मताधिकार दिया जाये (वह तो उन्हें प्राप्त ही है)। इसका मंशा इस आरोपका कि वे जबरन उपनिवेश में घुस आये हैं, और इस वक्तव्यका कि उपनिवेश की समृद्धिसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है, खण्डन करना है। हाथ कंगनको आरसी क्या? सबसे अच्छा प्रमाण तो यह है कि भारतीयोंके बारेमें कुछ भी क्यों न कहा जा रहा हो, उनकी माँग फिर भी की जाती है। संरक्षकका विभाग भारतीय मजदूरोंकी माँग पूरी करने में समर्थ नहीं हो रहा है।
१८९५की वार्षिक रिपोर्टके पृष्ठ ५ पर संरक्षकने कहा है :
अगर भारतीय सचमुच ही उपनिवेशको हानि पहुँचानेवाले हैं, तो सबसे अच्छा और सबसे न्यायपूर्ण तरीका यह होगा कि भविष्य में भारतीय मजदूरोंको लाना बन्द कर दिया जाये। इससे, उचित समय आनेपर, वर्तमान भारतीय आबादी भी उपनिवेश को ज्यादा कष्ट पहुँचाना बन्द कर देगी। जिन हालतोंका मतलब गुलामी होता हो उनमें उन्हें लाना न्यायसंगत नहीं है।