तो फिर, अगर इस अपीलसे भारतीय मताधिकारके खिलाफ उठाई गई विभिन्न आपत्तियोंका जरा भी सन्तोषजनक उत्तर मिला हो; अगर पाठकोंको यह दावा स्वीकार हो कि भारतीयोंका मताधिकार सम्बन्धी आन्दोलन उस सम्भावित अवदशाका विरोधमात्र है, जिसमें उनके विरुद्ध चलाया जा रहा आन्दोलन उन्हें डाल देना चाहता है। और उसका उद्देश्य राजनीतिक सत्ता अथवा प्रभाव प्राप्त करना नहीं है; तो मेरा नम्र खयाल है कि मैं पाठकोंको भारतीयोंके मताधिकारका घोर विरोध करनेका निश्चय करनेके पहले रुकने और सोचनेको कहूँ तो उचित ही होगा। यद्यपि अखबारोंने 'ब्रिटिश प्रजा' की दुहाईको दीवानापन और खब्त कहकर रद कर दिया है, मुझे उसी कल्पनाका सहारा लेना होगा। उसके बिना मताधिकारका कोई आन्दोलन होता ही नहीं। उसके बिना शायद सरकारसे सहायता प्राप्त कोई प्रवास भी नहीं होता। यदि भारतीय ब्रिटिश प्रजा न होते, तो बहुत सम्भव है, वे नेटालमें होते ही नहीं। इसलिए मैं दक्षिण आफ्रिका प्रत्येक अंग्रेजसे अनुरोध करता हूँ कि 'ब्रिटिश प्रजा' के विचारको तुच्छ चीज समझकर कोई यों ही रद न कर दे। १८५८ की घोषणा सम्राज्ञीका एक कानून है, जिसके बारेमें यह माना जाना चाहिए कि सम्राज्ञीकी प्रजाने उसे स्वीकार किया है। क्योंकि, वह घोषणा मनमाने तौरसे नहीं कर दी गई थी, बल्कि उनके तत्कालीन सलाहकारोंकी सलाहके अनुसार की गई थी। और उन सलाहकारोंमें मतदाताओंने अपने मतोंके द्वारा अपना पूरा विश्वास स्थापित किया था। भारत इंग्लैंडके आधीन है, और इंग्लैंड उसे खोना नहीं चाहता। भारतीयोंके साथ अंग्रेजोंका एक-एक व्यवहार भारतीयों तथा अंग्रेजोंके बीच आखिरी रिश्ता गढ़ने में कुछ-न-कुछ असर किये बिना नहीं रह सकता। कुछ हो, यह तो सत्य है ही कि भारतीय दक्षिण आफ्रिका में इसलिए हैं कि वे ब्रिटिश प्रजा हैं। कोई चाहे या न चाहे, भारतीयोंकी उपस्थिति तो बरदाश्त करती ही है। फिर क्या ज्यादा अच्छा यह न होगा कि दोनों समाजोंके बीच कड़वाहट पैदा करनेवाला कोई काम न किया जाये? जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने से, या निराधार मान्यताओंकी बिनापर निष्कर्षपर पहुँचनेसे यह बिलकुल अशक्य नहीं कि भारतीयोंके प्रति बिना इरादेके अन्याय हो जाये।
मेरा निवेदन है कि सभी विचारशील लोगोंके मनमें प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि भारतीयोंको उपनिवेश से कैसे खदेड़ दिया जाये, बल्कि यह होना चाहिए कि दोनों समाजों के बीच सन्तोषजनक सम्बन्ध कैसे स्थापित किया जाये। भारतीयोंके विरुद्ध अमैत्री और द्वेषका रुख रखनेका परिणाम, मेरा निवेदन है, अत्यन्त स्वार्थी दृष्टिकोण से भी भला नहीं हो सकता। हाँ, अगर अपने पड़ोसीके प्रति अपने मनमें अमैत्रीका भाव पैदा करने में ही कोई सुख हो तो बात दूसरी है। ऐसी नीति ब्रिटिश संविधान और ब्रिटेनवालोंकी न्याय तथा औचित्य-बुद्धिके प्रतिकूल है। सबके ऊपर, भारतीय मताधिकारके विरोधी जिस ईसाइयतकी भावनाका दावा करते हैं, उसकी वह द्रोही है।
अखबारों, सारे दक्षिण आफ्रिकाके लोकपरायण व्यक्तियों और धर्मगुरुओंसे मैं विशेष रूपसे अपील करता हूँ। लोकमत आपके हाथोंमें है। आप ही उसको ढालते और उसका मार्गदर्शन करते हैं। यह आपके सोचनेकी बात है कि क्या जिस नीतिका