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प्रार्थनापत्र : जो° चेम्बरलेनको

पौंड मूल्यकी अचल सम्पत्ति है, या जो १० पौंड वार्षिक किराया अदा करते हैं। ऐसा हिसाब तैयार करनेमें न तो बहुत समय लगेगा और न बहुत व्यय ही होगा। साथ ही इससे मताधिकारके प्रश्नको सन्तोषजनक रूपसे हल करनेमें बहुत मदद मिलेगी। कोई-न-कोई कानून मंजूर कर लेनेकी सरगर्म जल्दबाजी प्रार्थियोंके नम्र मतसे, समग्र उपनिवेशियोंके सर्वोत्तम हितोंके लिए हानिकारक होगी। भारतीय समाजके प्रतिनिधियोंकी हैसियतसे जहाँतक प्रार्थियोंका सम्बन्ध है, वे सम्राज्ञी-सरकारको आश्वासन देते हैं कि उनका इरादा आगामी वर्षके आम चुनावोंकी मतदाता-सूचीमें एक भी भारतीयका नाम शामिल करानेका नहीं है। यही आश्वासन वे अधिकारी रूपसे उस संस्थाकी ओरसे भी देते हैं, जिसके सदस्य होनेका उन्हें सम्मान प्राप्त है।

सरकारी मुखपत्रने वर्तमान विधेयककी चर्चा करते हुए सम्भवतः एक पर-प्रेरित लेखमें इस विचारका समर्थन किया है कि 'खतरा काल्पनिक' है। उसने कहा है:

और हमें निश्चय है कि यदि कभी एशियाई मतोंसे इस उपनिवेशमें यूरोपीय शासनकी स्थिरतापर खतरा आ ही जाये, तो सम्राज्ञी सरकार इस प्रकारकी कठिनाईपर पार पानेके उपाय निकाल लेगी। नया विधेयक उन सब लोगों के मताधिकार प्राप्त करनेपर कुछ मर्यादाएँ लादता है, जो यूरोपीय वंशके नहीं हैं। अभी, बतनी लोगों सम्बन्धी कानूनके अनुसार, केवल वर्तनियोंको छोड़कर शेष सब जातियों और वर्गोंकी ब्रिटिश प्रजाको मताधिकार सुलभ है। फिर भी कुल ९,५६० मतदाताओं में से भारतीय मतदाताओंकी संख्या सिर्फ २५० के लगभग है; या, यों कहा जा सकता है कि ३८ यूरोपीय मतदाताओं के पीछे सिर्फ एक भारतीयको मत देनेका अधिकार प्राप्त है। इस स्थितिमें हमारा विश्वास है कि नये विधेयकसे अगर हमेशा के लिए नहीं तो भी बहुत वर्षोंके लिए इस विषयको सभी अपेक्षाएँ पूरी हो जायेंगी। उदाहरणके लिए, दक्षिण कैरोलीना २१ वर्ष से ऊपरके नीग्रो लोगोंकी संख्या १,३२,९४९ है। इसके विपरीत २१ वर्षसे ऊपर के गोरे १,०२,५६७ ही हैं। फिर भी, अल्पसंख्यक होनेपर भी, गोरोंने प्रभुत्व शक्ति अपने हाथोंमें कायम रखी है। सच बात यह है कि संख्याके बावजूद शासनकी बागडोर हमेशा वरिष्ठ जातिके हाथोंमें ही रहेगी। इसलिए हमारा ऐसा विश्वास बनता है कि भारतीय मतों द्वारा यूरोपीय मतोंको निगल जानेका खतरा काल्पनिक है। हम जो कुछ जानते हैं उससे हमारा खयाल है कि भारतको 'चुनावमूलक प्रातिनिधिक संस्थाओं' वाला देश करार दिया जायेगा। वास्तवमें, बार-बार पेश की जानेवाली यह दलील कि भारतीय उन संस्थाओंके स्वरूप और दायित्वोंसे अपरिचित हैं, सचमुच ठीक निशानेपर नहीं बैठती। कारण यह है कि भारतमें लगभग ७५० नगरपालिकाएँ हैं। उनमें ब्रिटिश और भारतीय मतदाताओंको बराबर अधिकार है। १८९१ में ८३९ यूरोपीय नगरपालिकाके सदस्यों के मुकाबले भारतीय, सदस्य ९७९० थे।