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लन्दन-दैनन्दिनी

क्या यह मेरे लिए शर्मकी बात न होगी? तो भी, तुम्हारी माता और माईको पसन्द है तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है।" मैंने कहा—"परन्तु आप नहीं जानते कि अगर आप मुझे लंदन जानेकी इजाजत नहीं देते तो परमानन्दभाई मुझे आर्थिक सहायता नहीं देंगे।" मैंने ये शब्द कहे ही थे कि उन्होंने गुस्से से भरी आवाजमें कहा—"ऐसी बात है? छोकरे, तू क्या जाने, उन्होंने ऐसा क्यों कहा है। वे जानते हैं कि मैं तुझे जानेकी अनुमति कभी नहीं दूँगा। इसीलिए उन्होंने यह बहाना बनाया है। सच बात यह है कि वे कभी तुझे पैसेकी मदद नहीं करेंगे। मैं उन्हें मदद करने से नहीं रोकता।" इस प्रकार हमारी बात समाप्त हो गई। फिर मैं खुश होकर परमानन्दभाई के पास दौड़ा गया और मैंने उन्हें अपने और चाचाके बीच जो बात हुई थी वह शब्दशः कह सुनाई। उसे सुनकर वे भी बहुत नाराज हुए। लेकिन साथ-साथ उन्होंने मुझे ५,००० रुपये देनेका वादा भी किया। जब उन्होंने यह वादा किया तो मैं खुशीसे फूला नहीं समाया। मुझे इस बातसे और भी ज्यादा खुशी हुई कि उन्होंने अपने बेटेकी शपथ खाकर यह वादा किया। अब, उस दिनसे मैं सोचने लगा कि मेरा लंदन जाना पक्का है। थोड़े दिन पोरबन्दर में ठहरा। मैं जितना ज्यादा ठहरा, मेरे जानेकी बात उतनी ही ज्यादा पक्की होती गई।

अब, मेरी गैरहाजिरीमें राजकोटमें जो कुछ हुआ, वह इस प्रकार है। मेरा दोस्त शेख महताब, सचमुच बड़ा करिश्मेबाज है। उसने मेघजीभाईको उनके वादे की याद दिलाई और मेरे दस्तखतसे एक जाली पत्र तैयार किया, जिसमें उसने लिखा कि मुझे ५,००० रुपयोंकी आवश्यकता है, आदि। वह पत्र उन्हें दिखलाया गया और वह मेरा ही लिखा हुआ मान लिया गया। यह पत्र पाकर उनका स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने मुझे ५,००० रुपये देनेका गम्भीरताके साथ वादा किया। मुझे इसकी कोई सूचना राजकोट पहुँचनेतक नहीं दी गई।

अब फिर पोरबन्दरकी बात। आखिर मेरी वापसी के लिए एक दिन निश्चित किया गया और मैं कुटुम्बके लोगोंसे विदा लेकर अपने भाई करसनदास और मेघजी के पिता के साथ—जो, सचमुच, कृपणताके अवतार ही थे—राजकोटके लिए रवाना हुआ। राजकोट जानेके पहले मैं मेज-कुर्सी आदि साज-सज्जा बेच देने और घरके किराये का सिलसिला तोड़ देनेके लिए भावनगर गया। मैंने यह सब सिर्फ एक दिनमें कर लिया। अपने पड़ोसके मित्रों और दयालु घर-मालकिनसे मैं जुदा हुआ तो उनकी आँखोंसे आँसू टपकने लगे। मैं उनकी, अनूपरामकी और दूसरे लोगोंकी आत्मीयता कभी भूल नहीं सकता। यह सब करके मैं राजकोट पहुँचा।

परन्तु तीन वर्षके लिए बाहर जानेके पहले मुझे कर्नल वाट्सनसे[१] तो मिलना ही था। वे १९ जून, १८८८ को राजकोट आनेवाले थे। मेरे लिए तो यह समय बहुत ज्यादा था, क्योंकि मैं मईके आरम्भमें राजकोट पहुँच गया था। परन्तु लाचारी थी। मेरे भाईको कर्नल वाट्सनसे बहुत बड़ी आशा थी। सचमुच ये दिन बड़े कठिन गुजरे। रात को मुझे अच्छी तरह नींद तक नहीं आ पाती थी। रात-भर स्वप्न आते रहते

  1. राजकोट में नियुक्त काठियावाड़के पोलिटिकल एजेंट।