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भारतीय अन्नाहारी - ३

श्रे

जानेपर भी खाया जा सकता है और खाया जाता है। अंग्रेजोंके लिए जैसा मांस है, भारतीयोंके लिए वैसी ही रोटी है--फिर भले ही भारतीय अन्नाहारी हों या मांसाहारी । हेखकके खयालसे, भारतमें मासाहारी छोग भी मांसको स्वतंत्र आहारके रूपमें आवश्यक नहीं समझते, बल्कि यों कहें कि, रोटियाँ खानेमें मदद देनेवाली वस्तुके रूपमें, शाक-सब्जीके तौरपर खाते है। यह है खुशहाल भारतीयोंके साधारण आहारकी रूपरेखा। यह खझूपरेखा-मात्र

ही है। अब एक सवाल पूछा जा सकता है-- “क्या ब्रिटिश शासतसे भारतीयोंकी आदतोंमें कोई फर्क नही पड़ा ? ” जहाँतक भोजन और पेयोंका सम्बन्ध है, “हाँ भी और

नही” भी। “ नहीं” क्योकि साधारण स्त्री-पुरुषोने भी अपने मूल आहार

और उनकी संख्या कायम रखी है। “हाँ” क्योंकि जिन छोगोने थोड़ी-सी अंग्रेजी सीख ली है उन्होंने जहाँ-तहाँ कुछ अंग्रेजी आचार-विचार ग्रहण कर लिये है। परन्तु यह परिवर्तन भी बहुत दिखछाई नही पड़ता। परिवर्तन अच्छा है या बुरा, इसका निर्णय करनेका काम पाठकोपर ही छोड़ना होगा। यह वर्ग कलेवाकी जरूरतकों मानने छूग्ा है। कलेवार्मे मामूली तौरपर एक-

दो प्यालि चाय ही होती है। इससे हम “पेयों ” के प्रशनपर आ जाते है। तथा-

कथित शिक्षित भारतीयोंमें, मुख्यतः ब्रिटिश शासनके कारण, चाय-काफीका जो प्रचार हुआ हैउसका कमसे-कम जिक्र करके हम आगे बढ सकते हैं। चाय-काफी तो अधिकसेअधिक इतना ही कर सकती है कि थोड़ा-सा फालतू खर्च बढ़ा दे, और बहुत ज्यादा पीनेपर स्वास्थ्यमें सामान्य कमजोरी पैदा कर दे। मगर ब्रिटिश शासनकी जिन बुराइयोंको सबसे ज्यादा महसूस किया गया है, उसमें से एक है शराबका-- मानव

जातिके इस भन्रुका, सम्यताके इस अभिशापका --विभिन्न रुपो्में भारतमें आगमन । दूसरोसि सीखी हुई इस आदतकी बुराईका अन्दाजा तब छगेगा जब पाठक जान हें कि धामिक निषेघके बावजूद यह शत्रु सारतके एक कोनेसे दूसरे कोनेतक फैछ गया

है; क्योंकि मुसलमान तो अपने धर्मके मुताबिक, शराबकी बोतल छू लेने-मात्रसे ही नापाक हो जाता हैं और हिन्दुओंके धर्मते हर-एक रूपमें शराबके उपयोगका कठोर निषेध किया है। फिर भी खेद है कि सरकार उसे रोकनेके बजाय उसके प्रचारसें मदद और प्रोत्साहन देती-सी जान पड़ती है। भारतके गरीब लोग, जैसा कि सभी जगह होता है, इससे सबसे अधिक पीड़ित है। अपनी थोड़ी-सी कमाईकों अच्छे भोजन

और जरूरतकी दूसरी चीजोंपर खर्च करनेके बदले ये उसे शराबपर खर्च कर डालते है। गरीब ही वे अभागे छोग है, जो पी-पीकर अपने-आपको बरबाद कर लेते

हैंऔर अकाल-मृत्यु मर जाते हैंतथा फिर उनके कुंटुम्बको भूखों मरना पड़ता है; अगर ऐसे लछोगोंके बाल-बच्चे हो तो वे अपनी इस कुटेवके कारण उतकी देख-रेख करनेके पवित्र कत्तंव्य तककी परवाह नहीं कर पाते। यहाँ बेरोके सृतपूर्वे सदस्य श्री केनकी' १. विल्यिम सॉव्टन केन (१८४२-१९०३ ); मिरिश संपतद-सदत्य; कांग्रेस जिटिश समितिकी भारतीय संप्रोप उपतमितिके सदस्त; मारतमें स्वशासनके समर्थक; दक्षिण भाफिकावासी भारतोयोकि साथ सद्दानुभूति रखते थे ।