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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
अध्याय २०:छुटकारा

पाठक : आपके विचारोंसे मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप एक तीसरा पक्ष स्थापित करना चाहते हैं। आप उग्रपन्थी नहीं हैं, उसी प्रकार उदारपन्थी (मॉडरेट) भी नहीं हैं।

सम्पादक : यहाँ आप भूलते हैं। मेरे मनमें तीसरे पक्षकी बात है ही नहीं । सबके विचार समान नहीं होते। सभी उदारपन्थियोंके एक हीसे मत हों, ऐसा नहीं मानना चाहिए। जिसे सेवा ही करनी है उसे पक्षोंसे क्या मतलब ? मैं तो नरमपन्थकी सेवा करूँगा और उसी तरह उग्रपन्थीकी भी । जहाँ उनके विचारसे मेरा मत अलग पड़ेगा, वहाँ मैं उन्हें विनयपूर्वक बताऊँगा और अपना काम करता जाऊँगा ।

पाठक : तब आप यदि दोनोंसे कहना चाहें, तो क्या कहेंगे ?

सम्पादक : उग्रपन्थीसे मैं कहूँगा कि आपका उद्देश्य भारतके लिए स्वराज्य प्राप्त करना है। स्वराज्य आपके प्रयत्नोंसे मिलनेवाला नहीं है । स्वराज्य तो सबको अपन लिए लेना चाहिए और अपने ऊपर करना चाहिए। जिसे दूसरे लोग दिला दें, वह स्वराज्य नहीं बल्कि परराज्य है। इसलिए अंग्रेजोंको निकाल कर स्वराज्य ले लिया, ऐसा यदि आप मानें, तो वह ठीक नहीं होगा। वास्तविक स्वराज्य जिसे आप चाहते हैं सो तो वही होना चाहिए जो मैं बता चुका हूँ। उसे आप गोला-बारूदसे कभी प्राप्त नहीं करेंगे । गोला-बारूद भारतको सघ सके, ऐसी वस्तु नहीं है। इसलिए सत्याग्रहपर ही भरोसा रखिये। मनमें ऐसा भ्रम भी न लायें कि हमें स्वराज्य प्राप्त करनेके लिए गोला-बारूदकी जरूरत है।

नरमपन्थीसे मैं कहूँगा कि हम केवल आजिजी करते रहें, यह तो हमारी हीनता है। ऐसा करके हम अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंग्रेजोंसे सम्बन्ध रखना अनिवार्य है, ऐसा कहना हमारा ईश्वरपर अविश्वास करनेके बराबर है। हमें ईश्वरके अति- रिक्त और किसीकी आवश्यकता है ऐसा तो कहना ही नहीं चाहिए। और, साधारण विचार करें, तो भी ऐसा कहना कि अंग्रेजोंके बिना फिलहाल तो काम नहीं चलेगा उन्हें अभिमानी बनाने जैसा होगा ।

ऐसा नहीं मानना चाहिए कि अंग्रेज बोरिया-बिस्तर बाँधकर चले जायेंगे, तो भारत अनाथ हो जायेगा । ऐसा होनेपर सम्भव है कि जो लोग उनके दबावसे चुप बैठे हैं, वे लड़ने लगें । फोड़ेको दबा रखने से कोई फायदा नहीं । उसका तो फूट बहना ही ठीक है। इसलिए अगर आपसमें लड़ते रहना ही हमारे भाग्यमें हो, तो हम लड़ेंगे-मरेंगे। उसमें कमजोरको बचाने के बहानेसे किसी दूसरेको बीचमें पड़नेकी आवश्यकता नहीं है। इसीसे तो हमारा नाश हुआ है। कमजोरको इस तरह बचाना उसे और भी कमजोर बनानेके समान है। नरमपन्थियोंको इस बातपर अच्छी तरह सोचना चाहिए | इसके बिना स्वराज्य मुमकिन नहीं है। मैं उन्हें एक अंग्रेज पादरीके कहे हुए शब्दोंकी याद दिलाता हूँ कि " 'स्वराज्यका उपभोग करते हुए यदि अव्यवस्था हो तो वह सहन करने योग्य है, किन्तु परराज्यमें प्राप्त व्यवस्था भी दरिद्रता है।" अलबत्ता, उस पादरीके स्वराज्य और हिन्द स्वराज्यका अर्थ जुदा-जुदा है। हम गोरे या भारतीय किसीका भी जुल्म अथवा दबाव नहीं चाहते। सबको तैरना सीखना और सिखाना है ।



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