बिताने और उसमें आनन्द प्राप्त करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु बादवाले सुझावको मंजूर या नामंजूर करना आपकी मर्जीपर है।
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ४४१२) की फोटो-नकलसे । सौजन्य : श्री ए० एच० वेस्ट ।
चि० छगनलाल,
मैंने आर्थिक स्थितिके सम्बन्धमें श्री मैकिन्टायरका पत्र पढ़ने और श्री वेस्टको पत्र लिखनेके बाद अपने मनमें उठे विचारोंको तुमपर प्रकट करनेका निश्चय किया है। यह पत्र पुरुषोत्तमदासको पढ़वा देना ।
फीनिक्सकी परीक्षा अब होगी। शायद जोहानिसबर्गसे रुपया न मिलेगा। हमारा प्रण यह है कि जबतक फीनिक्समें एक भी व्यक्ति रहेगा तबतक हम 'इंडियन ओपिनियन' को • भले एक पन्नेका ही अंक क्यों न हो- • अवश्य प्रकाशित करेंगे और लोगोंमें बाँटेंगे। वहाँ किसी प्रकारका झगड़ा न होने देना । कहा-सुनी सह लेना । डर्बनका दफ्तर बन्द होता हो तो हो जाने देना। यह हमेशा याद रखना कि मुख्य बात- पर दृढ़ रहना है। उसपर बलिदान होनेके लिए अन्य सब वस्तुओंका त्याग करना पड़ता है। असल बात तो यही है कि चाहे जितने कष्ट सहने पड़ें, पत्र निकालना है और फीनिक्स नहीं छोड़ना है। यह रहे; चाहे अन्य सब-कुछ चला जाये । हम पत्रको मूर्ति मानकर पूजना नहीं चाहते, किन्तु अपनी प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं। हमारी जीत पत्र निकालनेमें नहीं, प्रतिज्ञाके पालनमें है। ट्रान्सवालके कानूनको रद करवानेमें कुछ नहीं है; प्रतिज्ञाके पालनमें ही सब-कुछ है। इससे आत्माका विकास होता है। यही इसका और [ हमारी ] सारी प्रवृत्तियोंका रहस्य है या होना चाहिए । सुझाव यह देना कि चाहे श्री वेस्ट डर्बन जायें, या मणिलाल; किन्तु दफ्तर कायम रहे ।
१. स्कॉटलैंडके एक थियासोंफिस्ट, जो शुरूमें गांधीजीके पास शिक्षार्थी वकील बनकर आये थे और बाद में उनके सहयोगी बन गये थे ।
२. देखिए “ पत्र : ए० एच० वेस्टको”, पृष्ठ ८०-८२ ।
३. पुरुषोत्तमदास देसाई, जो फीनिक्स स्कूलके व्यवस्थापक थे; देखिए “पत्र : ए० एच० वेस्टको ", पृष्ठ ११२ ।
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