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सात

भयको दूर करके और भारतीयोंकी मांगोंको समुचित परिप्रेक्ष्यमें रखकर उनके विरोधको निरस्त करनेकी कोशिश की। अपने भाषणोंके द्वारा वे भारतीयोंको अपना निश्चय कायम रखने के लिए उत्साहित करते रहे : "यदि आपमें तनिक भी पौरुष हो तो आपको सत्याग्रही बनना चाहिए।. . .जैसा जनरल स्मट्सने कहा है, सत्याग्रह एक प्रकारका युद्ध है।... नागप्पनने जो नींव डाली है, उसे हम यों ही कैसे पड़ा रहने दें ? हमें उनके नामका स्मरण करके जबतक जीत न मिले तबतक लड़ना है।. . . कष्टसहनके बिना कुछ नहीं मिलता" (पृष्ठ १०७-८)। लेकिन भारतीयोंको अपने सम्मानकी रक्षाके लिए लड़नेको उत्साहित करते हुए उन्होंने उन्हें अपने दोष देखने और उन्हें सुधारनेके लिए भी कहा। उदाहरणके लिए “भारतीय व्यापारी" (पृष्ठ १५६-७), "क्या भारतीय झूठे हैं?" (पृष्ठ १५७-८), "जो करेगा सो भरेगा" (पृष्ठ २४४), "हिन्दू-मुसलमान" (पृष्ठ २७४), "कलकत्ते में दंगा" (पृष्ठ ४१५) आदि लेख देखे जा सकते हैं।

और विरोधकी आवाज वे बिना थके निरन्तर बुलन्द करते रहे। प्रतिपक्षीको हृदय-परिवर्तनके द्वारा न्यायबुद्धिकी राहपर लाने के लिए यह जरूरी था कि ईर्ष्या-द्वेष और अतिशयोक्तिसे बचते हुए उसे उसके अन्यायका बोध कराया जाये। जब जो सवाल सामने आया- चाहे वह जेलमें भारतीय सत्याग्रही कैदियोंके साथ दुर्व्यवहारका रहा हो या नेटालके स्कूलोंमें भारतीय शिक्षकों और विद्यार्थियोंके प्रति भेदभावका, अथवा दक्षिण आफ्रिका संघ अधिनियममें रंगदार लोगोंके मताधिकारके अपहरणका-- गांधीजी पीड़ितोंको लगातार लड़ते रहने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करते रहे। इस समयके उनके लेखनों और भाषणोंमें यही एक स्वर बार-बार ध्वनित होता रहा कि उन्हें सारा भय छोड़कर अथक तबतक लड़ते रहना है, जबतक अन्याय दूर न कर दिया जाये और न्याय मिल न जाये। और वे अपनी बात केवल भारतीयोंसे नहीं समस्त एशियाइयों "रंग-विद्वेष", (पृष्ठ ३०४) से, बल्कि सारे रंगदार लोगोंसे (पृष्ठ १७७, १७९) कह रहे थे।

संघर्ष चलता रहा और उसकी सफल समाप्तिका मुहूर्त दूर सरकता रहा। जून १, १९१० को दक्षिण आफ्रिका संघका जन्म हुआ और उसके साथ ही सोराबजीको सातवीं बार गिरफ्तार करके जेलमें बन्द कर दिया गया। गांधीजीने उसे भारतीयोंके लिए शोकका दिन कहा और समाचारपत्रोंके नाम लिखे गये अपने इसी तारीखके पत्र (पृष्ठ १८१-२) में भारतीयोंकी मांगको पुनः दुहराया। इस घटनाके कुछ ही समय बाद सरकारने भारतीय समाजके खिलाफ एक बिलकुल ही नया और असामान्य कदम उठाया; उसने एक प्रतिष्ठित और पुराने व्यापारी छोटाभाईके नाबालिग लड़केके १६ सालकी आयु पूरी करने के बाद संघमें रह सकनके अधिकारको चुनौती दी। एक लम्बी अदालती लड़ाई शुरू हुई, जिसमें अन्ततः सर्वोच्च न्यायालयने अपना फैसला नाबालिगके पक्षमें दिया। सितम्बर, १९१० के अन्तिम दिनोंमें 'सुलतान' नामक जहाजसे पोलकके साथ कई दक्षिण आफ्रिकी भारतीय, जिन्हें भारत निर्वासित कर दिया गया था. दक्षिण आफ्रिका वापस लौटे। किन्त. उन्हें पहले डर्बनमें, फिर पोर्ट एलिजाबेथमें, फिर केप में और पुन: डर्बनमें, कहीं भी उतरनेकी अनुमति नहीं दी गई।


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