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१९. भाषण : जोहानिसबर्ग की आम सभामें'
[दिसम्बर ५, १९०९]
 

इस सभाकी उपस्थिति देखें तो भारतीय समाजपर कमजोर हो जानेका जो आरोप लगाया गया है वह मिथ्या ठहरता है। फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि जो उत्साह प्रारम्भमें था वह अब नहीं है। बहुतेरे भारतीयोंने हार मान ली है। परन्तु इससे हताश न होना चाहिए। प्रत्येक संघर्षमें ऐसा हुआ ही करता है। संघर्षके अन्ततक थोड़े ही लड़नेवाले टिकते हैं। जिस समाजमें श्री बावजीर, श्री रुस्तमजी, श्री नायडू', श्री सोराबजी-जैसे वीर मौजूद हैं, वह समाज हार गया, ऐसा माना ही नहीं जा सकता। जिस कौममें ऐसे लोग मौजूद हैं वह अवश्य जीतेगी; परन्तु हम जहाँ अपनी शक्तिका विचार करते हैं वहाँ हमें अपनी कमजोरीको नहीं भूलना है। जो झुक गये हैं वे अगर झुके न होते तो आज समझौता हो चुका होता एक बच्चा भी इसे समझ सकता है।

जनरल स्मट्सने हम लोगोंको आने दिया इसके लिए हमें उनका उपकार मानना चाहिए। इससे इस संघर्ष में शालीनताकी जो भावना रही है उसका पता चलता है। फिर भी कटुता बढ़ी है। जब कैदियोंसे मैलेकी बाल्टियाँ इत्यादि उठवाई जायें और व्यर्थकी तकलीफें दी जायें तब कटुता क्यों न बढ़े ? नागप्पनकी मृत्यु संघर्ष में हो हुई -- यह कैसे भुलाया जा सकता है ? अगर भारतीय समाज यह सब याद रखे तो वह संघर्षको कभी न छोड़ेगा । चाहे जो भी हो, मैंने, और उसी प्रकार अनेक भारतीयोंने, इस संघर्षके निमित्त अपना जीवन अर्पित किया है। यदि सबके सब भारतीय सत्याग्रही होते तो (शिष्टमण्डलके) इंग्लैंड जानेकी जरूरत ही न रहती । सत्याग्रहोका बल दुःख उठानेमें ही है। परन्तु चूंकि हम सब सत्याग्रही नहीं हैं इसलिए शिष्टमण्डल भेजा गया । वह जीत तो साथ नहीं लाया परन्तु निराश भी नहीं लौटा। लॉर्ड क्रू अब समझते हैं कि हमारा संघर्ष नितान्त स्वच्छ है। उसमें स्वार्थ नहीं है और हमारे सब तरीके सराहनीय हैं। लॉर्ड ऍम्टहिल भी यह बात भली-भाँति समझते हैं और उसी प्रकार दूसरे अंग्रेज नेतागण भी । ऐसा एक भी अंग्रेज या भारतीय देखनमें नहीं आया जिसने कहा हो कि हमारा संघर्ष न्यायपर आधारित नहीं है। इतना नतीजा भी बुरा नहीं माना जा सकता। अब हम आगे बढ़ सकते हैं।

१. पिछले शीर्षकमें जो भाषण दिया गया है, यह उसीका गुजराती विभागमें प्रकाशित विवरण है।

२. थम्बी नायडू देखिए " पत्र : गो० कृ० गोखलेको ”, पृष्ठ १०१ ।

३. शेल्तके सन्दर्भमें; देखिए पिछला शीर्षक ।


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