प्रिय प्रो० गोखले,
जैसे ही हम केप टाउन पहुँचे, आपका वह तार मिला जिसमें श्री टाटाके शानदार दानकी सूचना थी । और अब आपने पूनासे पूछा है कि हमें कितना रुपया चाहिए । मैंने अभी निम्न तार दिया है :
फिलहाल हजार पौंडकी आवश्यकता महीना खत्म होने से पहले कैदकी आशंका। बादमें इससे बहुत अधिककी जरूरत ।
मैं देख रहा हूँ कि खर्च बढ़ गया है, इसपर हमारा कोई वश नहीं है; और दक्षिण आफ्रिकामें हमारे साधन चुक गये हैं। ट्रान्सवालमें ही काफी भारतीय हैं और यदि वे चाहें तो अब भी बाहरी सहायताके बिना आन्दोलन जारी रख सकते हैं; परन्तु अब उनकी इच्छा सहायता करनेकी नहीं है। उनका खयाल है कि वे काफी दे चुके हैं। ये समाजके अपेक्षाकृत कमजोर सदस्य हैं। जो सबसे ज्यादा ताकतवर थे, वे आर्थिक दृष्टिसे बरवाद हो ही चुके हैं और अब इतना-भर करते हैं कि जितनी बार उनको सरकार गिरफ्तार करे उतनी बार जेल जाते हैं। उनके परिवारों तक का पालन करना होता है। संघर्षके आरम्भमें दफ्तरका सारा खर्च मैंने उठाया था। मैं दफ्तरका किराया भी देता था। यह दफ्तर वस्तुत: मेरी वकालतके कामके लिए था, किन्तु पिछले दो साल नेमैं वकालतका काम बहुत ही कम किया है। मैंने 'इंडियन ओपिनियन' चलानेका खर्च भी जुटाया है। पत्र निश्चय ही अभीतक आत्म- निर्भर नहीं बन पाया है। चालू खर्च इस प्रकार है : ५० पौंड
मैं समझता हूँ कि महीनेका कमसे-कम इतना खर्च तो रहेगा ही। ओपिनियन' से सम्बन्धित लगभग सभी लोग, जिनमें यूरोपीय भी हैं, एक प्रकारसे गरीबीका व्रत लेकर काम कर रहे हैं; किन्तु चूंकि शुल्क देनेवाले ग्राहक बहुत थोड़े हैं, इसलिए सहायता आवश्यक है। मैं समझता हूँ कि अगर भारतसे चन्दा आ जाये तो हम ऊपरके सभी खर्च जारी रखें। यदि न आये तो मेरा इरादा 'इंडियन ओपिनियन' का बहुत-सा खर्च कम कर देनेका है। [लेकिन] इस प्रकार संघर्ष अपनी सहायताके एक बड़े साधनसे वंचित हो जायेगा । मेरा इरादा लन्दनके दफ्तरको भी बन्द कर देनेका है। ऐसे सक्रिय सत्याग्रही जिनकी अन्ततक पक्के बने रहनेकी सम्भावना है
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