पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 10.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नौ

सन्तुष्ट करके उससे सुलह करना चाहते हैं, किन्तु उनके साथ समझौतेकी बातचीतका यह सिलसिला टेढ़ी-मेढ़ी गतिसे काफी लम्बा चला और बार-बार ऐसे अवसर भी आये जब लगा कि वह अब टूटा, तब टूटा। इतना ही नहीं, स्मटसके साथ एकइंच जमीनके लिए लड़ते हुए उन्हें डोक - जैसे अपने समर्थकों और रिच-जैसे सक्रिय कार्यकर्ताओं तक को अपने साथ रखने में काफी कठिनाई पड़ी (“पत्र : एल० डब्ल्यू रिचको", पृष्ठ ५२२-३) । मार्च २७ को स्मट्ससे हुई अपनी बातचीतकी रिपोर्ट (पृष्ठ ५३१), जो उन्होंने कुमारी श्लेसिनको भेजी थी, इस खण्डमें प्रकाशित अत्यन्त दिलचस्प प्रकरणोंमें से है। बातचीत टूटते-टूटते बच गई। आखिर वह अवसर आया, जब केप टाउनके एक भाषणमें गांधीजीने कहा : “अब हम मंजिलके बहुत पास जा पहुँचे है और यदि हम सत्याग्रहपर दृढ़ रहकर काम करते रहे, तो जीत बेशक हमारी होगी" (पृष्ठ ५३९)। लेकिन अन्तिम समझौता सन् १९१३ के शरमें १९०७ और १९०८ की लड़ाइयोंसे भी ज्यादा बड़ी एक और लड़ाईके बाद ही हो सका।

इस अनवरत सार्वजनिक व्यस्तताके बावजूद गांधीजी अपनी आध्यात्मिक सम्पद्के विकास में निरन्तर अग्रसर होते रहे; आखिर अपनी इसी सम्पत्तिसे तो उन्हें इस भारी बोझको सर्वथा शान्तभावसे वहन करनकी शक्ति मिलती थी, जिसे वे अपने ऊपर लगातार लादते जा रहे थे। मगनलालके नाम अपने एक पत्रमें वे लिखते है : “भारतके उद्धारका बोझ अपने कन्धोंपर उठानेका अनावश्यक कार्य मत करो। अपना ही उद्धार करो। इतना ही बोझ बहुत है । यह सब कुछ अपने ही ऊपर लागू करो। तुम्हीं भारत हो, इस ज्ञानमें आत्माकी प्रौढ़ता निहित है। तुम्हारे उद्धारमें भारतका उद्धार है। बाकी सब ढोंग है" (पृष्ठ २२२)। गांधीजीकी सारी प्रवृत्तियाँ उनके इस बुनियादी विश्वाससे प्रेरित थीं कि राजनीतिक स्वराज्य नैतिक स्वराज्यका ही बाह्य रूप है और यह नैतिक स्वराज्य हमें किसी बाहरी शत्रुसे नहीं, एक आन्तरिक शत्रुसे लड़कर प्राप्त करना है। उनका यह विश्वास पिछले कई वर्षोंसे लगातार अधिकाधिक दृढ़ होता रहा था। उनकी जिज्ञासु दृष्टिको उसकी सचाईके संकेत, कभी यहाँसे और कभी वहाँसे, यानी विविध दिशाओंसे मिल रहे थे और उनका सहज विनयशील मन इन सारे पावन प्रभावोंको ग्रहण करता जा रहा था। तर्कातीत सहज-ज्ञानके कण धीरे-धीरे इकट्ठे होते जा रहे थे और अन्तमें 'हिन्द स्वराज्य के रूपमें उन्होंने शब्दोंका सुनिश्चित आकार ग्रहण किया। सन् १९०९के ग्रीष्म और शरमें जब गांधीजी इंग्लैंडमें थे, तब उन्होंने पास देखा कि साम्राज्य सरकार उन्हें एक ऐसे उद्देश्य की प्राप्तिमें भी या तो मदद देने में असमर्थ है या मदद देना नहीं चाहती, जिसका सम्बन्ध, उनके विचारमें, जितना भार तीयोंके सम्मानकी रक्षासे था उतना ही साम्राज्यके भविष्यकी रक्षासे भी। वहाँ वे देशभक्तिकी प्रखर भावनासे प्रेरित ऐसे अनेक भारतीय युवकोंके सम्पर्कमें भी आये, जो भारतीय स्वतंत्रताकी प्राप्तिके लिए हिंसाका प्रयोग करनेके लिए उद्यत थे। गांधीजी और उनके शिष्टमण्डलके वहाँ पहुँचनेके कुछ ही दिन पूर्व इन्हीं युवकोंमें से एकने कर्जन वाइलीकी हत्या कर दी थी और इस कारण उस समय वहाँ लोगोंमें इस दलकी और उसके कार्योंकी बड़ी चर्चा थी। गांधीजी इन देशभक्त युवकोंकी वीरताकी सराहना करते थे, किन्तु उनके तरीकोंके प्रति उन्हें गहरी विरक्ति थी। एक ऐसे आन्दोलनके

Gandhi Heritage Portal