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लेखा-जोखा

विलायतमें श्री रिचके मातहत स्वयंसेवक बड़ा अच्छा काम कर रहे हैं। यह काम आज जैसा चल रहा है अगर एक साल वैसा चले तो इसका क्या अर्थ होगा ? मान लीजिए हर हफ्ते औसतन चार पौंड आयें तो दो सौ आठ पौंड इकट्ठे हो जायेंगे । और यदि पचास दस्तखत हों तो, २,६०० दस्तखत हो चुकेंगे । वास्तवमें सम्भावना तो इससे अधिक काम होनेकी है। फिर भी यदि २,६०० आदमी ही हमारे संघर्ष से अच्छी तरह वाकिफ हो जायें तो यह कोई छोटी बात नहीं गिनी जा सकती। सत्या- ग्रहके संघर्षकी बात जितनी अधिक फैलती है वह उतना अधिक दीप्त होता है और जो उसका विरोध करते हैं उन्हें शर्मिन्दा होना पड़ता है। श्री पोलकने भारतको जगा दिया है। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, भारत अधिकाधिक शक्ति समेट रहा है। इस सबसे प्रकट होता है कि संघर्षके लम्बे होनेसे हमारी कोई हानि नहीं है। जिस लड़ाई में लड़नेवालोंका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता उस लड़ाईके लम्बे खिचनेसे उन्हें लाभ ही होता है, क्योंकि वे परमार्थकी दृष्टिसे लड़ रहे होते हैं। परमार्थकी तो सीमा नहीं होती। इस तरह विचार करें तो जो जेलके कष्ट उठा रहे हैं हमें उनके बारेमें भी सोच नहीं करना चाहिए। वे दुःखकी आँचमें तपकर और भी दमकने लगते हैं ।

नेटालपर नजर डालें तो वहाँकी परिस्थिति दयनीय दिखाई देती है। नेटाल- सरकारने कुछ ऐसे कानून बनाये हैं जिनका विरोध करनेकी आवश्यकता है। व्यापारिक कानूनमें जो थोड़ा-बहुत फेरफार हुआ है हम उसे महत्त्वहीन मानते हैं। शिक्षाके मामले में सरकारने बड़ी मनमानी कर रखी है। आगे-पीछे नेटालके भारतीयोंके लिए सत्याग्रहके सिवा चारा नहीं है।

केपके भारतीय सोये पड़े हैं। केपमें कोई खास नया कानून नहीं बनाया गया; किन्तु समाज रोज-व-रोज कमजोर होता चला जा रहा है। व्यापार भारतीयों के हाथमें नहीं रहा। केपकी अच्छी स्थितिसे समाजने लाभ नहीं उठाया । अन्यथा केपके भारतीय केपके साथ-साथ सारे दक्षिण आफ्रिकाके लिए बहुत बड़ा काम कर सकते हैं ।

डेलागोआ-बेमें भारतीय दिन-दिन अपने अधिकार खोते जा रहे हैं। पुर्तगाली अधिकारी अंग्रेजोंके उकसानेसे उनपर ज्यादती करते हैं। हम समाजसे यह कहते हैं कि सरकारके अत्याचारका विरोध करनेमें कोई हानि नहीं है। उसमें समाजकी शोभा है। और ऐसा करना समाजका कर्तव्य है।

[ गुजरातीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १-१-१९१०
 

१. देखिए "नेटालका परवाना अधिनियम ", पृ४ १०४ ।


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