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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कानूनी बल नहीं था। आज ये उपनिवेशके कानूनोंका अंग बन गये हैं और चूंकि उनसे कानूनी असमानताका सिद्धान्त स्थापित होता है, इसलिए ट्रान्सवालके भारतीय समाजका यह कर्तव्य है कि वह अपनी पूरी शक्तिसे इस बुराईका मुकाबला करे। रेलगाड़ियोंमें अलग जगह मुकर्रर करना और ऐसे ही अन्य मामले कानूनके विषय नहीं हो सकते । बल्कि उनका नियन्त्रण तो सम्बन्धित समुदायोंके सद्भाव और ऐच्छिक सहयोगसे ही किया जा सकता है। यह स्थिति ज्यों ही बदलती है, वह सत्ताके अप- हरणका रूप ले लेती है और इसका विरोध समस्त कानूनी उपायोंसे किया जाना चाहिए। यहाँ हमने 'कानूनी' शब्दका प्रयोग सत्याग्रहके अर्थमें किया है जिसे इस पत्रके पाठक अच्छी तरह जानते हैं। हमारी सम्मतिमें सत्याग्रह अन्यायके निवारणके लिए विशुद्ध कानूनी उपाय है।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ८-१-१९१०

४९. फेरीवालोंका कर्तव्य

यह लेख हम खास तौरसे ट्रान्सवालके फेरीवालोंके लिए लिखते हैं। ट्रान्सवालके संघर्षका, फेरीवालोंके साहससे, बहुत अच्छा प्रभाव हुआ है। सैकड़ों फेरीवाले जेल गये, इससे यह लड़ाई बड़ी मानी गई। अबतक खयाल किया जाता था कि ये लोग मानापमानकी बात नहीं समझते। अब सब मानते हैं कि फेरीवाले न केवल माना- पमानकी बात समझ सकते हैं, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी है। सभाओंमें उनकी उपस्थिति उनका गौरव बढ़ाती है। इतना करनेके बाद अब वे उसको छोड़ दें तो यह ठीक नहीं होगा।

ट्रान्सवालकी लड़ाई ऐसी है कि इसमें प्रत्येक व्यक्तिको अपनी शक्तिपर भरोसा रखना चाहिए। यह लड़ाई ऐसी नहीं है कि दूसरेकी मददसे जीत सकें। इस लड़ाई में अपने दुःख अपने-आप दूर करना सीखना है। इसलिए यदि मान लिया जाये कि फेरीवाले इस बार हार ही जाते हैं तो भविष्यमें जब कभी उनपर संकट आयेगा तब वे उसका प्रतिकार न कर सकेंगे ।

इस लड़ाईको तेजीसे खत्म करना फेरीवालोंके हाथकी बात है और इतना वे ज्यादा दुःख भुगते बिना कर सकते हैं। वे फिलहाल फेरीके परवाने न लें, बिना परवानोंके ही व्यापार करके गिरफ्तार हों। यह काम वे आसानीसे कर सकते हैं। जिस प्रकार सरकार इस समय जान गई है कि फेरीवालोंने तो घुटने टेक दिये हैं, उसी प्रकार वे सरकारको बता सकते हैं कि फेरीवाले घुटने टेकनेपर भी दुवारा उठ सकते हैं। ऐसा करनेमें किसीको किसीसे होड़ नहीं करनी है, बल्कि सभी प्रयत्न कर सकते हैं।

[ गुजरातीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ८-१-१९१०

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