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पत्र: मगनलाल गांधीको

एक मास तक उधार देनेका नियम शरीरबल (स्वार्थ) और आत्मबल (परमार्थ) दोनों दृष्टियोंसे रख सकते हैं। यह नियम उन दो श्रेणियोंमें से किसके अन्तर्गत आता है सो इसपर निर्भर करता है कि वह किस उद्देश्यसे गढ़ा गया है।

धर्मादेमें से कुछ न लेनेका तुम्हारा विचार उत्तम है। वास्तवमें यह धर्मादा नहीं है। परन्तु ठीक यही है कि हम उसे धर्मादा मानें। लेकिन वर्तमान स्थितिमें इस प्रश्नको उठाना ठीक नहीं है। तुमने जो संकेत दिया है उसके मुताबिक ही जमा कराना ।

फिलहाल तुम्हारा चार पौंड [ मासिक ] लेते रहना ठीक है। मैंने यह निर्णय सोच समझकर ही किया था । चि० छगनलाल विलायत जायेगा इसका भी खयाल रखा था। राजकोटके बारेमें भी विचार कर लिया था ।

ब्रह्मचर्यके सम्बन्धमें तुम्हारा संकल्प जानकर प्रसन्नता हो रही है । एक वर्षके लिए लिया है यह भी ठीक है । इस सम्बन्ध में तुम्हें मेरा पूरा आशीर्वाद है। जब तुम उसको निभा ले जाओगे तब तुम्हें दूसरा ही अनुभव होगा।

सन्तोकका फिलहाल भारत जानेका विचार न करना ही अच्छा है, मैं तुम्हें इस सम्बन्धमें अपने विचार बतला चुका हूँ।

चि० छगनलालने 'सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी " का जो वर्णन दिया है उसे पढ़कर मनमें दुःख हुआ। यह खेदका विषय है कि प्रोफेसर गोखले जैसे महान व्यक्ति भी इसमें पड़े हैं। मेरा खयाल है कि वे उसमें से निकल आयेंगे, क्योंकि वे सच्चे हैं। यह संस्था पश्चिमकी नकल-भर है। क्या सेवकोंके लिए सेवक रखना उचित है ? और ये सेवक हैं कौन ? उनको रखनेकी जरूरत ही क्यों पड़ी? इस संस्थाके सदस्योंका भोजन दूसरे क्यों बनाते हैं ? ये 'सेवक' धर्मके बारेमें क्या समझते हैं ? भारतमें बड़ी-बड़ी इमारतें किसलिए होनी चाहिए? झोंपड़ियाँ पर्याप्त क्यों नहीं होनी चाहिए ? यह तो चूहा मारनेके लिए पहाड़ खोदने जैसा हुआ । प्रोफेसर गोखलेका यह काम कब समाप्त होगा ? उसपर खर्च कितना बैठता है ? केवल एम० ए० या बी० ए० को ही सेवक बनाया जा सकता है, यह कैसा भ्रम है ? यह तो ऊसरमें खड़े एरण्डको महान वृक्ष माननेके न । मेरी यह धारणा अवश्य है कि फीनिक्सके उद्देश्य 'सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' के उद्देश्योंसे बढ़-चढ़कर हैं। यहाँके रहन-सहनकी पद्धति भी वहाँकी पद्धतिसे अच्छी है। हममें झगड़ा-फसाद हुआ करते हैं, परन्तु ये तो होते हैं। हम चीनीसे चाशनी तैयार करते हैं, बनते समय उसमें बहुत सा मैल दिखाई देता है; परन्तु हम मैलको चाशनी नहीं मान लेते । हम लोग यहाँ एक प्रकारकी चाशनी तैयार कर रहे हैं। और जबतक वह बन नहीं जाती तबतक मैल दिखाई देगा ही। हम जो कुछ यहाँ कर रहे हैं, वह वास्तविक है; जो कुछ पूनामें हो रहा है, उद्देश्यको छोड़ दें तो वह अवास्तविक है। उद्देश्य तो अच्छा है; परन्तु जो किया जा रहा है वह बुरा है। यह पत्र मैंने बहुत व्यस्ततामें लिखा है। इस समय मेरी मानसिक स्थिति 'नेति नेति २ की है। फीनिक्स भी 'नेति' है। फिर भी वह तुलनात्मक

१. श्री गोपालकृष्ण गोखले द्वारा १९०५ में स्थापित संस्था ।

२. ब्रह्मी अनन्तताका बोधक पद जिसका अर्थ होता है : 'अन्त नहीं है । '