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दृष्टिसे पूनाके आडम्बरसे अधिक अच्छा है। डॉक्टर मेहता इस भीतरी रहस्यको समझ सके हैं। इससे यह न समझना कि प्रोफेसर गोखले या उनके साथी हमारे पूज्य नहीं हैं; लेकिन हमारा पूजा-भाव अन्धा नहीं है । 'हिन्द स्वराज्य " में जिस मानदण्डका संकेत मैंने किया है उसके अनुसार प्रोफेसर गोखलेके 'सेवकों' का काम उचित नहीं समझा जा सकता। उससे तो हमारी गुलामी बढ़नेकी ही सम्भावना है । यदि मैं पूर्वको पश्चिमका रूप देनेका प्रयत्न करूँ तो मैं भी गोखलेजीकी तरह दीर्घ निश्वास भरूँगा और निराश हो जाऊँगा । मेरी वर्तमान मनःस्थिति ऐसी है कि मैंने जो कुछ भी कहा है यदि उसका विरोध सारा संसार करे तो भी मैं हताश न होऊँगा । मेरी यह बात घमंडकी बात नहीं है बल्कि सच्ची है। हमारा मनोरथ भारतको अच्छा बनाना नहीं है। हम खुद अच्छे बनें यह हमारा मनोरथ है । और यही हमारा मनोरथ हो सकता है। शेष सब मिथ्या है। जिसने अपने आपको नहीं पहचाना है उसने कुछ भी नहीं जाना है | 'सेवकों' का अंग्रेजीका ज्ञान उनके लिए छद्मावरण हो गया है। चि० छगनलाल फीनिक्सके बारेमें उनके प्रश्नका उत्तर न दे सका, इससे उसकी भीरुता प्रकट होती है । यह स्वाभाविक ही था । जरासा विचार करता तो वह जान जाता कि 'सेवकों' की स्थिति अनाध्यात्मिक है । हमें अपने अक्षर-ज्ञान और लौकिक ज्ञानकी अन्धी पूजा त्यागनी है ।
मेरे इन विचारोंके बावजूद छगनलालके द्वारा दिये गये वर्णनका कुछ भाग 'इंडियन ओपिनियन 'में प्रकाशित करनेमें कोई हर्ज नहीं है। हम उससे कुछ सीखेंगे ही । हमें रावणके उत्साहका अनुकरण करते हुए आत्मतत्वकी ओर झुकना चाहिए ।
तुम इस पत्रको फीनिक्समें जिसे पढ़ाना चाहो पढ़वा देना । फिर उसे चि० छगनलालको भेज देना । मुझे उसे पत्र लिखनेका समय नहीं मिलेगा । मेरा इरादा शनिवारको यहाँसे रवाना होनेका था लेकिन अब देखता हूँ कि यह सम्भव नहीं है । मुझे नहीं लगता कि अब मैं १५ फरवरीसे पहले रवाना हो सकूंगा ।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजी के स्वाक्षरोंमें लिखित मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ४९२६ ) से । सौजन्य : राधाबेन चौधरी ।
१. देखिए " हिन्द स्वराज्य", पृष्ठ ६-६९ ।
२. यह अंश ५-८-१९१० के और १२-२-१९१० के इंडियन ओपिनियनके गुजराती भागमें प्रकाशित हुआ था । इसका शीर्षक था 'सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी - आत्मत्यागके उदाहरण' ।