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क्या भारतीय झूठे हैं ?

यह सब सुधार लेनेके बाद भी गोरे तो जलते ही रहेंगे। इससे लड़नेके लिए सत्याग्रहके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है । सत्याग्रहके लिए फिलहाल ट्रान्सवालका समर्थन करना आवश्यक है। हमने जो अनुवाद दिया है उसका सम्बन्ध केपके भारतीयोंसे है, किन्तु वह सभी भारतीयोंपर लागू होता है। इसलिए ट्रान्सवालके व्यापारियोंको, जो सत्याग्रह छोड़ बैठे हैं, सावधान हो जाना आवश्यक है। अपने स्वार्थ और पैसेके घमण्डमें यदि वे समाजके हितोंका बलिदान करेंगे, तो बादमें पछतायेंगे । यदि उन्होंने फिलहाल थोड़ा नुकसान उठा भी लिया तो आगे चलकर बड़े नुकसानसे बचे रहेंगे। बादमें सब-कुछ खोनेसे तो यही अच्छा है कि अभी सत्याग्रहमें शामिल होकर थोड़ा- बहुत नुकसान उठा लिया जाये। ट्रान्सवालके व्यापारियोंको इस काममें दूसरे व्यापारी हिम्मत और उत्तेजन देते रह सकते हैं। यदि इसमें चूक हुई तो बादमें पछताना पड़ेगा। जबतक एक भी लड़नेवाला भारतीय बचा है, तबतक संघर्षमें तो जीत निश्चित ही है, किन्तु उसका फल व्यापारियोंको नहीं मिलेगा, क्योंकि तब यह माना जायेगा कि वे कमजोर हैं। जब दक्षिण आफ्रिकाके अधिकारियोंको मालूम हो जायेगा कि व्यापारी भी सबल हैं, तभी वे उनसे डरेंगे।

हमारी सलाह है कि ऊपरकी बातोंपर प्रत्येक भारतीय व्यापारी गम्भीरतासे विचार करे ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ५-२-१९१०

७५. क्या भारतीय झूठे हैं ?

सहयोगी [ नेटाल ] 'ऐडवर्टाइज़र' डंक मारना बन्द नहीं करेगा। मजिस्ट्रेट बीन्सने एक भारतीयके मामलेमें फैसला देते हुए भारतीयोंपर झूठ बोलनेकी तोहमत लगाई है। ‘ऐडवर्टाइज़र' ने उसपर टिप्पणी करते हुए एक लम्बा लेख लिखा है। उसमें भारतीयोंपर हमला किया गया है और उनको बहुत धिक्कारा गया है। हमने इस लेखका सार दूसरी जगह दिया है। श्री बीन्सने अपने फैसलेमें हमारी निन्दा की है और श्री स्मिथ- को ऊँचा चढ़ाया है। यह तो अधिकारियोंका तरीका है ही। उन्हें एक-दूसरेका ढोल पीटना ही चाहिए। यदि इसमें रैयतकी बरबादी होती है, तो हो; उन्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं। उन्हें तो केवल अपनी जेबकी फिक्र है ।

कुछ भी हो, जो हमारे प्रति द्वेषभाव रखते हैं हमें उनसे भी सीखना चाहिए। श्री बीन्स हमपर झूठा होनेका आरोप लगाते हैं। यह आरोप एकदम रद नहीं किया जा सकता । उसमें जो अतिशयोक्ति है उसको नजरअन्दाज करके, हमें इसपर ध्यान देना चाहिए। यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जब हम लोग अदालतमें जाते हैं, तो कुछ तो इतना ही सोचते हैं कि जीत किस तरह हो । सत्य किस तरह जीते, यह विचार

१. पत्रके २४-१-१९१० के अंक ।

२. देखिए ५-२-१९१० के इंडियन ओपिनियन में "नेटालमें एशियाश्योंका प्रश्न ” ।