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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं रहता। हमारी दृष्टिमें तो अदालत में 'सत्यकी जय' की गुंजाइश ही नहीं बची। किन्तु इसमें भी कोई शक नहीं है कि भारतीय समाजमें कुछ लोग ऐसे हैं जो वहाँ लगभग नाटक करते हैं और अदालतको चाहे जो समझा देते हैं। यदि हमारी यह आदत छूट जाये, तो सम्भव है, समाजको बहुत फायदा हो । समाज ऐसा करे, इससे पहले नेताओंको इसका प्रारम्भ करना पड़ेगा। समाजके सारे कामोंका आधार ईमानदारी है। इसलिए अपने पाठकोंको हमारी सलाह है कि वे 'ऐडवर्टाइज़र' के लेखपर गम्भीरतासे विचार करें। हमारे यहाँ कहावत है : 'साँचको आँच नहीं'।'

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, ५-२-१९१०

७६. पेरिसका तूफान

कुदरत तो अपना काम नियमानुसार करती रहती है। मनुष्य हमेशा उसके नियमोंको तोड़ा करता है। प्रकृति अलग-अलग ढंगसे समय-समयपर मनुष्यको चेतावनी देती रहती है कि संसारमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो अचल बनी रहेगी। इसका उदाहरण देना जरूरी नहीं है। श्री मलबारीने गाया है : “जो आया है वह जायेगा"। हमारे यहाँ एक गज़ल भी गाई जाती है : "कई कई परी जवान थी कइसे चले गये ""। फिर भी जब-जब हमारे सामने कोई बड़ा और ताजा उदाहरण उपस्थित होता है, तब-तब हम चौंक उठते हैं और विचार करने लगते हैं। ऐसी ही एक घटना पेरिसमें हुई। अभी-अभी पेरिसकी नदीमें ऐसी बाढ़ आई कि बड़े-बड़े मकान गिरने लगे। प्रसिद्ध चित्रशाला तो पूरी तरह जोखिममें आ गई। ऐसी मजबूत सड़कें, जिनपर लाखों पौंड खर्च हुए थे, बैठ गईं। आदमी डूब मरे । जो डूबनेसे बच गये वे दबकर मर गये। बड़े-बड़े चूहोंको जब खानेको कुछ न मिला, तो वे बच्चोंपर ही टूटने लगे। ऐसा क्यों हुआ? पेरिसके लोगोंने तो पेरिसकी रचना यह सोचकर की थी कि उसका नाश कभी नहीं होगा। प्रकृतिने चेतावनी दी कि पूरा पेरिस भी ष्ट हो सकता है। यदि पानीका जोर एक दिन और ऐसा ही रहता तो सचमुच यही होता।

किन्तु पेरिसके लोग इस बातको नहीं समझेंगे कि फिरसे बड़े-बड़े प्रासाद बनाना केवल मूर्खता है। यह भी सच है कि अब जो इमारतें वे बनायेंगे, वे भी कभी-न-कभी गिरेंगी। घमण्डी इन्जीनियर और ज्यादा खूबीसे भरी योजनाएँ बनायेंगे और पानीकी तरह पैसा खर्च करेंगे। वे इस महाप्रलयको भूल जायेंगे। ऐसी है आधुनिकताकी धुन !

क्या हम भी ऐसा ही करें ? क्या हम भी ऐसे जंगली और पागल लोगोंकी नकल करें ? ऐसा आडम्बर तो वही कर सकता है जो ईश्वरको भूल जाये । सवाल यह

१. मूल गुजराती : सांचानो बेली ईश्वर छे । सच्चेका मित्र भगवान है।

२. बहरामजी मलबारी (१८६३-१९१२) बम्बईके पारसी पत्रकार, कवि और समाज-सुधारक ।

३. कहा नहीं जा सकता गांधीजीका अभिप्राय ठीक किस गज़लसे था|

४. लूवरके पुराने राजमहलकी चित्रशाला ।