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७९. एक पत्रका अंश'
[फरवरी ५, १९१० के आसपास ]
 

विपत्तिके समय साहसके अलावा कोई चारा नहीं । और मेरे मनमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जो साधन ट्रान्सवालमें उचित ठहरेंगे वे ही भारतमें भी ठीक रहेंगे। लेकिन छगनलालके पत्रसे प्रकट है कि तैयारी हम फीनिक्स-जैसे स्थानमें ही कर पायेंगे । हमारा कर्तव्य है कि हम श्मशानमें सोते हुए भी न डरें। यह सम्भव है कि वहाँ सोना शुरू करनेवाला व्यक्ति भयके मारे नींदमें ही मरकर रह जाये। इस प्रकार अभी तो हमारा और आपका भारत एक श्मशान-जैसा ही है। हमें वहीं अपना बिस्तर बिछाकर मीराबाईका भजन 'बोल मा, बोल मा,' आदि गानेके लिए तैयारी करनी चाहिए, करनी पड़ती है मुझे सदा ऐसा आभास होता रहता है कि मृत्युका किसी भी रूपमें, किसी भी समय स्वागत करने लायक शक्ति मुझमें आयेगी। मेरी यही कामना है कि सभी लोगोंमें इतनी दृढ़ता पैदा हो ।

डाह्याभाई पटेल द्वारा सम्पादित और सेवक कार्यालय, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित गुजराती पुस्तक 'गांधीजीना पत्रो' से। इसे रावजीभाई पटेलकी गुजराती पुस्तक 'गांधीजीनी साधना' में भी उद्धृत किया गया है।

८०. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
बुधवार [फरवरी ९, १९१०]
 
सत्याग्राहियोंको सुझाव

अब सत्याग्रहियोंमें अधिकतर तो तमिल भाई ही रहे हैं। उन तक मेरे शब्द पहुँचना कम सम्भव है; फिर भी उनमें से कुछ गुजराती पढ़वाकर समझ लेते हैं। उनके लिए और बम्बई अहातेके तथा दूसरे प्रान्तोंके जो भारतीय अभी बचे हैं, उनके लिए मुझे यह लिखनेकी जरूरत है कि अब जितनी लड़ाई बाकी रह गई है वह सत्याग्रहियों के कम हो जानेके कारण मुश्किल भी है और आसान भी है। अब जो जेल जानेवाले हैं उन्हें जमानतपर न छूटना चाहिए। जब उनपर मुकदमा चल रहा हो उस वक्त भी उन्हें

१. सम्भवतः यह पत्र मगनलाल गांधीको लिखा गया था ।

२. यहाँ छगनलाल गांधीके जिस पत्रका हवाला दिया गया है, वह वही पत्र मालूम पड़ता है।

जिसमें 'सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी का विवरण था । इस पत्रके कुछ अंश ५ - २-१९१० और १२-२-१९१० के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुए थे । देखिए "पत्र : मगनलाल गांधीको”, पृष्ठ १४७-४८ ।

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