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सत्याग्रहियोंको भूखों मारना

जाता था । इसके अलावा उन्हें हफ्ते में तीन बार सेमें दी जाती थीं और एक बार माँस दिया जाता था। दूसरी जेलोंमें एक औंस चर्बी प्रतिदिन दी जाती थी। खास तौरसे इस शिकायत के जवाब में कि निरामिष भोजी सत्याग्रही चर्बी नहीं खा सकते इसलिए उसके बदले में उन्हें घी दिया जाये, सरकारने समूचे उपनिवेशमें भारतीय कैदियोंको घी या चर्बीसे वंचित कर दिया । इस प्रकार संशोधित आहार-तालिका भारतीयोंके 'प्रचलित आहार ' से बिलकुल नहीं खाती, क्योंकि उसमें रोटी, घी, दाल और चाय भरपूर होती है । कोई भारतीय अपनी इच्छासे मक्कीका आहार नहीं करता । लेकिन, फिर भी भारतीय कैदियोंके आहारका बड़ा भाग यही है । हम ऐसे किसी 'निष्पक्ष भारतीय समर्थक ' को नहीं जानते जिसने यह माना हो कि संशोधित आहार-तालिका भारतीयोंकी पहली आहार- तालिकासे अच्छी है । दरअसल उन सबने यही कहा है कि घीके बगैर कोई भारतीय आहार- तालिका पूर्ण नहीं हो सकती । प्राचीन कालसे घी चावलका पूरक माना गया है। उसका दूसरा नाम ही 'अन्नपूर्णा' अर्थात् चावलका पूरक है; क्योंकि सभी जानते हैं कि चावलमें कोई स्निग्ध पदार्थ नहीं होता । तब जो चीज इस तरहके भोजनका आवश्यक भाग है उससे रहित आहार पहले आहारसे अधिक अच्छा कैसे कहा जा सकता है ? पिसा मसाला सिर्फ मसाला है । वह घीकी तरह आहार नहीं है । इस विवरणमें कहा गया है कि संशोधित तालिकाका निश्चय करनेसे पहले पच्चीस डॉक्टरोंकी सलाह ली गई थी और इसे बड़ा महत्त्व दिया गया है । परन्तु विवरणमें इस बातका कहीं उल्लेख तक नहीं कि पिछले नौ महीनोंसे भारतीय कैदियोंको मुख्यतः डीपक्लूफ जेलमें ही इकट्ठा रखा गया है; इसलिए अन्य डॉक्टरोंके सामने विचार करनेके लिए पर्याप्त सामग्री ही नहीं थी । कार्यवाहक चिकित्साधिकारीको भले ही इस आरोपका कोई कारण नहीं मिल सका हो कि सत्याग्रही दुबले और कमजोर क्यों दिखाई दे रहे हैं; परन्तु सर्वश्री रुस्तमजी, बावजीर, अस्वात और शाहके शरीर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। श्री रुस्तमजीका तो विशेष इलाज ही चल रहा है। श्री बावजीर मुश्किलसे चल सकते हैं। श्री अस्वात पंगु हो गये हैं और श्री शाह्के थूकमें खून आता है । ये सब यही समाचार लाये हैं कि शिकायतोंका सबसे बड़ा कारण घीका अभाव है। डॉक्टरोंकी पूरी फौज आकर भले ही दूसरी तरहकी बातें कहे, किन्तु उसका क्या मूल्य है, जबकि स्वयं शिकार हुए व्यक्ति ही आहार अपूर्ण होनेका प्रत्यक्ष सबूत अपने दुबले और कमजोर शरीरोंसे दे रहे हैं। फिर भी निःसन्देह हम कृतज्ञ हैं कि जो भारतीय माँस नहीं खाते उन्हें उसके बदले सेमें दी जाती हैं । परन्तु उस विवरणमें इस बातकी तरफ कहीं ध्यान तक नहीं दिया गया है कि यद्यपि सेमें मांसकी भलीभाँति पूर्ति कर सकती हैं फिर भी वे घीका स्थान तो नहीं ले सकतीं। इसलिए हम यह कहे बगैर कदापि नहीं रह सकते कि ट्रान्सवालकी सभ्य सरकार सत्याग्रहियोंके प्रति घोर निर्दयताका व्यवहार कर रही है। यह आरोप उसपर तबतक बना रहेगा जबतक कि वह हृदयहीन बनकर उन्हें आंशिक रूपसे भूखों मारती रहेगी ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-२-१९१०

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