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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साथ ऐसी शर्त तय की होती तो वह युद्धका कारण बन जाती। इसका यह अर्थ हुआ कि बड़ी सरकार अपनी प्रजाको अपनी सहप्रजापर अत्याचार करनेसे नहीं रोक सकती। वह ट्रान्सवालसे डरती है; और इसका यह अर्थ भी निकलता है कि बड़ी सरकारकी सत्ताका उपयोग अत्याचारीके अत्याचारको स्थायी बनाने और उसकी मदद करनेमें होता है। इस स्थितिमें हमें क्या करना चाहिए ? यदि भारतीयोंमें दम है तो जो हार मानकर बैठ गये हैं उन्हें फिर उठ खड़ा होना चाहिए । इन्साफ कुछ अदालतोंमें जाने से नहीं मिलेगा। हमें अपने ही बलपर जूझना है। ट्रान्सवालकी सरकार जितना अधिक जुल्म करे हमें उतना अधिक बल, उतनी अधिक सहनशक्ति और निर्भयता बतानी है। हम चाहते हैं कि संघर्षमें भारतीय बहुतायतसे शामिल हों । {{left[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-३-१९१०}}

१३०. पारसी रुस्तमजी

श्री रुस्तमजीके बारेमें ट्रान्सवालकी सरकारने लम्बा उत्तर भेजा है। श्री काछ- लियाने उसका जवाब दे दिया है। ब्रिटिश लोकसभामें भी उसपर चर्चा हो रही है। यह सब ठीक रहा है। सरकारी अमलदारोंने श्री रुस्तमजीको तोड़ देनेकी कोई कोशिश उठा नहीं रखी। उन्हें अब उसीका फल भोगना पड़ रहा है। ऊपरसे वे भले ही चेहरेपर शिकन न आने दें, किन्तु यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस बातको लेकर उनको खासी डाँट पड़ी है। इमाम साहबसे सम्बन्धित जो शिकायत की गई थी सरकारने अपने इस पत्रमें उसका भी उल्लेख किया है। उसे उसका औचित्य स्वीकार करना पड़ा है। इन दो महानुभावोंने जो दुःख भोगा है उसका लाभ आगे सजा पानेवाले सत्याग्रहियोंको मिलेगा। ईश्वरका नियम ऐसा ही अद्भुत है। हमारे लिए उसको मानकर चलना उचित है। यदि दुःख भोगनेवाला उसका लाभ उठाये तो दुःखकी महिमा कम होती है। उसके दुःखकी सम्पूर्णता तो तभी है जब वह देहपात होने तक दुःख उठाये और बादके लोगोंको उसका लाभ मिले। हमारी कामना है कि श्री रुस्तमजी और इमाम साहबको ऐसी सद्बुद्धि और शक्ति मिले। {{left[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-३-१९१०}} १. देखिए १९-३-१९१० का जेल-निदेशककी ओरसे ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्षको भेजा गया पत्र; यह इंडियन ओपिनियनमें, २६-३-१९१० को उद्धृत किया गया था । २. देखिए “पत्र: जेल-निदेशकको”, पृष्ठ २०५-०७ । Gandhi Heritage Porta