१३१. पत्र : नारणदास गांधीको
जोहानिसबर्ग,
फाल्गुन वदी ४, संवत् १९६६
[ मार्च २९, १९१० ]
मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया है। तुम आदरणीय खुशालभाईकी अनुमति न मिलनेके कारण नहीं आ सकते, यह बात मेरी समझमें आ सकती है। उनकी मर्जीके अनुसार चलना तुम्हारा धर्म है। वहाँ रहते हुए भी तुम यहाँके उद्देश्यों (की पूर्ति) में सहायता कर सकते हो । [' हिन्द ] स्वराज्य' नामक पुस्तक जब्त कर ली गई है। इससे प्रतीत होता है कि वहाँ भी बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। ऐसा करनेके लिए तुमको चरित्र निर्माण करना चाहिए। क्या तुम अपने धर्मके मूल तत्वोंसे परिचित हो ? कदाचित् तुम कहोगे, मुझे तो सम्पूर्ण गीता कण्ठस्थ है; उसका अर्थ भी जानता हूँ। तब फिर चाचाजी मूल तत्वोंके बारेमें क्यों पूछ रहे हैं? मैं तो मूल तत्व जाननेका अर्थ तदनुसार व्यवहार करना लगाता हूँ । देवी सम्पत्का प्रथम गुण 'अभय' है । यह श्लोक तुम्हें याद होगा। क्या तुमने कुछ भी 'अभय' - पद प्राप्त किया है ? क्या तुम कर्तव्यको शरीरके लिए जोखिम होनेपर भी निडर होकर करोगे? जबतक यह स्थिति प्राप्त न हो तबतक इसका अभ्यास करना और उस तक पहुँचनेका प्रयत्न करना । अगर ऐसा किया तो तुम बहुत कुछ कर सकोगे। इस प्रसंग में तुम्हें प्रह्लाद, सुधन्वा आदि के चरित्र याद करने की जरूरत है। इन सबको दन्तकथाएँ न मान लेना । उस प्रकारके कार्य करनेवाले भारतके लाल हो चुके हैं। इसी कारण हम इन आख्यानोंको कण्ठस्थ करते हैं। ऐसा न मान लेना कि आज प्रह्लाद, सुधन्वा, हरिश्चन्द्र और श्रवण भारत में नहीं हैं। जब हम इस योग्य बनेंगे तब उनसे भेंट भी हो जायेगी। वे वहाँ बम्बईकी 'चालों' में नहीं दिखाई देंगे। पथरीली भूमिमें गेहूँकी फसलकी आशा नहीं की जा सकती । विशेष न लिखूँगा । दैवी सम्पत्के गुणोंपर पुनः विचार करना । उनको ध्यानमें रखकर इस पत्रको पढ़ना और तदनन्तर उसके अनुसार व्यवहार करनेका प्रयत्न करना । ['हिन्द ] स्वराज्य 'में सत्याग्रहका जो प्रकरण है, उसे एक बार फिर पढ़ लेना और उसपर विचार करना । कोई प्रश्न पूछना हो तो पूछ लेना । बम्बईमें भले १. गांधीजीके चचेरे भाई और नारणदास गांधी के पिता; देखिए “पत्र: नारणदास गांधीको", खण्ड ९, पृष्ठ ४५२-५३ । इसमें गांधीजीने नारणदासको दक्षिण आफ्रिका आनेके लिए लिखा था। २. भगवद्गीता, १६, १-३ । ३. देखिए खण्ड ९, पृष्ठ १९८ और २३६ । Gandhi Heritage Portal