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पत्र: मगनलाल गांधीको
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जाने और आनेकी व्यवस्थासे कोई लाभ नहीं हुआ है। जब हम रेल और ऐसे ही अन्य साधनोंको छोड़ देंगे तब पत्रोंकी झंझटमें न पड़ेंगे। जिस वस्तुमें सचमुच दोष नहीं है उसे एक निश्चित सीमा तक काम में लाया जा सकता है। हम लोग जो, [पाश्चात्य] सभ्यतासे घिरे हैं, डाक और ऐसी अन्य वस्तुओंका उपयोग कर सकते हैं; किन्तु हम उनका उपयोग विवेकके साथ करेंगे तो उनके पीछे दीवाने न बनेंगे और अपने व्यवसायको बढ़ाने के स्थानपर क्रमशः घटायेंगे ही। जिस व्यक्तिको समझमें यह बात आ जायेगी, उसे जिन गाँवोंमें रेल या डाकखाना नहीं है वहाँ उन्हें ले जानेका मोह न होगा । स्टीमर-जैसी अनावश्यक वस्तुएं एकाएक नहीं जा सकतीं और सब लोग उन्हें छोड़ेंगे भी नहीं, इस खयालसे हमें और तुम्हें चुप बैठे रहकर उनके उपयोगमें वृद्धि न करनी चाहिए। यदि एक भी व्यक्ति उनका उपयोग कम कर देगा या बन्द कर देगा तो दूसरे लोग उतनी ही हद तक वैसा करना सीख जायेंगे । जो व्यक्ति यह मानता है कि -- किसी कामको करना ठीक है, वह तो उसे करता ही रहेगा, फिर दूसरे लोग उसे चाहे करें, चाहे न करें । सत्यके प्रचारकी यही विधि है। इसकी दूसरी विधि संसारमें देखने में नहीं आई।

संसदका मोह त्यागना कठिन है। चमड़ी उतारना, जीवित व्यक्तिको आगमें झोंकना, लोगोंके कान और नाक काटना, निःसन्देह जंगलीपन था; लेकिन चंगेज़ खाँ, तैमूरलंग और ऐसे ही अन्य लोगोंके अत्याचारोंकी अपेक्षा संसदका अत्याचार बढ़चढ़कर है। इसी कारण हम उसमें फँस गये हैं। आधुनिक अत्याचार मोहजनित है, इस कारण वह अधिक खराबी करता है। एक व्यक्तिके अत्याचारके सामने टिका जा सकता है, परन्तु जनताके नामसे जनतापर किये गये अत्याचारका सामना करना बहुत कठिन है। ऐसा लगता है कि पहले कुछ शासक मूर्खराज होते थे और कुछ बुद्धिमान निकल आते थे । यदि हमपर केवल एडवर्ड ही शासन करते तो ठीक होता; परन्तु हमपर और तुमपर अंग्रेज-मात्र राज्य करता है। इस वाक्यके अर्थपर विचार करना । यहाँ मैं लोगोंके संसार-मोहकी बात नहीं कहता। भारतमें साधारणतः तो यही माना जाता है कि संसद एक पाखण्ड है । असाधारण बुद्धिका व्यक्ति भी पाश्चात्य सभ्यताके रंग में रँगकर संसदमें मोहग्रस्त हो जाता है।

यह कहकर कि पिण्डारियों (लुटेरों) पर दयाका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, तुमने आत्माके अस्तित्वको अथवा उसके मुख्य गुणको मानने से ही इनकार किया है। भगवान् पतंजलिने' दया आदिका जो महत्त्व बताया है उसके विचार-मात्रसे चित्त प्रसन्न होता है। असल बात यह है कि हम लोगोंके मनमें भयने घर कर रखा है। इस कारण सत्य, दया आदि गुण विकसित नहीं हो पाते। फिर हम यह मान लेते हैं कि क्रूर मनुष्योंपर दया कुछ असर नहीं करती। यदि हम ऐसे व्यक्तिके प्रति दया करते हैं जो हमारे प्रति दया करता है तो यह दया नहीं कही जा सकती; यह तो दयाका बदला है। १. योगदर्शनके प्रणेता । Gandhi Heritage Portal